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________________ १४६ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी मित्र, महामिप्ट अन्नपान, चिन्तामणि रत्न, खजाने, कल्पवृक्ष, और कामधेनु आदि अगणित पदार्थ क्यों न मौजूद हों, उनसे वह कहीं किसी काल में भी कृतकृत्य नहीं हो सकता ।। भावार्थः --- स्वर्ण, रत्न, हाथी, घोड़े आदि मांसारिक पदार्थ अस्थिर हैं-सदाकाल विद्यमान नहीं रह सकते और पर हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूप शाश्वत है कभी भी इनका नाश नहीं हो सकता और निज है, इसलिये स्वर्ण आदि पदार्थोके प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्य कृतकृत्य नहीं हो सकता-संसारमें उसे बहुतसे कार्य करनेके लिये बाकी रह जाते हैं; किन्तु जिस समय शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति हो जाती है उस समय कोई काम करने के लिये बाकी नहीं रहता । शुद्धचिद्रूपका स्वामी जीव सदाकाल निराकुलतामय शाश्वत सुखका अनुभव करता रहता है ।। १४ ।। परद्रव्यासनाभ्यासं कुर्वन् योगी निरंतरं ।। कर्मा गादिपरद्रव्यं मुक्त्वा क्षिप्रं शिवी भवेत् ।। १५ ।। अर्थ:-निरंतर परद्रव्योंके त्यागका चिन्तवन करनेवाला योगी शीघ्र ही कर्म और शरीर आदि परद्रव्योंसे रहित हो जाता है और परमात्मा वन मोक्षमुखका अनुभव करने लगता है ।। १५ ।। कारणं कर्मबन्धस्य परद्रव्यस्य चिंतनं । स्वद्रव्यस्य विशुद्धस्य तन्मोक्षस्यैव केवलं ॥ १६ ।। अर्थः-स्त्री, पुत्र आदि परद्रव्योंके चिन्तवनसे केवल कर्म बन्ध होता है और स्वद्रव्य-विशुद्धचिद्रूपके चिन्तवन करनेसे केवल मोक्षसुख ही प्राप्त होता है-संसार में भटकना नहीं पड़ता ।। १६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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