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________________ पन्द्रहवाँ अध्याय । [ १४५ पुस्तकैर्यत्परिज्ञानं परद्रव्यस्य मे भवेत् । तद्धेयं किं न हेयानि तानि तत्त्वावलंबिनः ॥१३ ।। अर्थ:-मैं अब तत्त्वावलम्बी हो चुका हूं-अपना और परायेका मुझे पूर्ण ज्ञान हो चुका है, इसलिये शास्त्रोंसे उत्पन्न हुआ परद्रव्योंका ज्ञान भी जब मेरे लिये हेय-त्यागने योग्य है तब उन परद्रव्योंके ग्रहणका तो अवश्य ही त्याग होना चाहिये उनकी ओर झांककर भी मुझे नहीं देखना चाहिये । भावार्थः-यद्यपि आत्मस्वरूपके जानने के लिये शास्त्र और गुरु आदिके उपदेशसे परद्रव्यके स्वरूपका ज्ञान करना पड़ता है; परन्तु जिसकी दृष्टि सर्वथा शुद्धचिद्रूपकी ओर झुक गई है-जो तत्त्वावलंबी हो गया है उसके लिये जब पुस्तकोंसे होता परद्रव्यका ज्ञान भी हेय है-त्यागसे योग्प है ( क्योंकि वह शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिमें बाधक है ) तब उसे परद्रव्योंका तो सर्वथा त्याग कर देना ही चाहिये ; क्योंकि वे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिमें बलवान बाधक हैं-परद्रव्योंके अपनानेसे तो शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति कभी हो ही नहीं सकती ।। १३ ।। स्वर्णैरत्नैः कलत्रैः सुतगृहवसनैर्भूषण राज्यखाथैगोहस्त्यश्वैश्च पद्गैः रथवरशिविकामित्रमिष्टान्नपानैः । चिंतारत्नै निधानः सृरतरुनिवहैः कामधेन्वा हि शुद्धचिद्रप्राप्ति विनांगी न भवति कृतकृत्यः कदा क्वापि कोऽपि ॥१४॥ अर्थः-कोई भी प्राणी क्यों न हो जब तक उसे शुद्धचिपकी प्राप्ति नहीं होती तब तक चाहे उसके पास स्वर्ण, रत्न, स्त्री, पुत्र, घर, वस्त्र, भूषण, राज्य, इन्द्रियोंके उत्तमोत्तम भोग, गाय, हाथी, अश्व, पदातिसेना, रथ, पालकी, त. १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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