SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ } [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अवलंबन कर, उसीके स्वरूपका मनन, ध्यान और चिन्तवन कर, पर पदार्थोंका संसर्ग करना छोड़ दे-उन्हें अपने मत मान ॥ १० ॥ अवश्यं च परद्रव्यं नश्यत्येव न संशयः । तद्विनाशे विधातव्यो न शोको धीमता क्वचित् ॥ ११ ॥ अर्थः-जो परद्रव्य है उनका नाश अवश्य होता है । कोई भी उसके नाशको नहीं रोक सकता, इसलिये जो पुरुष बुद्धिमान हैं—स्वद्रव्य और परद्रव्यके स्वरूपके भले प्रकार जानकार हैं उन्हें चाहिये कि वे उनके नाश होने पर कभी किसी प्रकारका शोक न करें ॥ ११ ।। त्यक्त्वा मां चिदचित्संगा यास्यत्येव न संशयः । तानहं वा च यास्यामि तत्प्रीतिरिति मे वृथा ॥ १२ ॥ अर्थः-ये चेतन-अचेतन दोनों प्रकारके परिग्रह अवश्य मुझे छोड़ देंगे और मैं भी सदा काल इनका संग नहीं दे सकता, मुझे भी ये अवश्य छोड़ देने पड़ेगे । इसलिये मेरा इनके साथ प्रेम करना व्यर्थ है । भावार्थः-स्त्री-पुत्र आदि चेतन स्वर्ण रत्न आदि अचेतन परिग्रह यदि सदा काल मेरे साथ रहे और मैं सदा काल इनके साथ रहूँ तब तो इनके साथ मेरा प्रेम करना ठीक है, परन्तु मेरा तो इनके साथ जितने दिनोंका सम्बन्ध है उतने दिनोंका है-अवधिके पूर्ण हो जाने पर न मैं अधिक काल तक इनके साथ रह सकता हूँ और न ये ही मेरे साथ रह सकते हैं, इसलिये मेरा इन्हें अपनाना, इनके साथ प्रेम करना निष्प्रयोजन है ।। १२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy