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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थः-जो मनुष्य तीर्थयात्रा, भगवानकी पूजन, इन्द्रियोंका जय, जप, तप, अध्यापन ( पढ़ाना), साधुओंकी सेवा, दान, अन्यका उपकार, यम, नियम, शील, भयका अभाव, मौन, व्रत और समितिका पालन एवं संयमका आचरण करता हुआ शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें रत है, उसे तो मोक्षकी प्राप्ति होती है और उससे अन्य अर्थात् जो शुद्धचिद्रूपका ध्यान न कर तीर्थयात्रा आदिका ही करनेवाला है, उसे नियमसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है ।
भावार्थः-तीर्थयात्रा, भगवानकी पूजन, इन्द्रियोंका जय, जप, तप, अध्यापन, साधुओंकी सेवा आदि कार्य सर्वदा शुभ है । यदि इनके साथ शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें अनुराग किया जाय तो मोक्षकी प्राप्ति होती है और शुद्धचिद्रूपका ध्यान न कर केवल तीर्थयात्रा आदिका ही आचरण किया जाय तव स्वर्ग सुख मिलता है, इसलिये उत्तम पुरुषोंको चाहिये कि वे मोक्ष मुखकी प्राप्तिके लिये तीर्थ यात्रा आदिके साथ शुद्धचिद्रूपका ध्यान अवश्य करें । यदि वे शुद्धचिद्रूपका ध्यान न भी कर सके तो तीर्थयात्रा भगवानकी पूजन आदि कार्य तो अवश्य करने चाहिये; क्योंकि इनके आचरण करनेसे भी स्वर्गमुख की प्राप्ति होती है ।। २ ।।
चित्तं निधाय चिद्रपे कुर्याद् वागंगचेष्टितं ।
सुधीनिरंतरं कुंभे यथा पानीयहारिणी ॥ ३ ॥
अर्थः-जो मनुष्य विद्वान हैं-संसारके संतापसे रहित होना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे घड़ेमें पनिहारीके समान शुद्धचिद्रूप में अपना चित्त स्थिर कर वचन और शरीरकी चेष्टा करें ।
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