________________
चौदहवाँ अध्याय अन्य कार्योंके करने पर भी शुद्धचिद्रूपके स्मरणका उपदेश नीहाराहारपानं खमदनविजयं स्वापमौनासनं च यानं शीलं तपांसि व्रतमपि कलयन्नागमं संयमं च । दानं गानं जिनानां नुतिनतिजपनं मन्दिरं चाभिषेकं यात्रार्चे मूर्तिमेवं कलयति सुमतिः शुद्धचिद्रपकोऽहं ॥ १ ॥ __ अर्थः—बुद्धिमान पुरुष नीहार ( मलमूत्र त्याग करना) खाना, पीना इन्द्रिय और कामका, विजय, सोना, मौन, आसन, गमन, शील, तप, व्रत, आगम, संयम, दान, गान, जिनेन्द्र भगवानकी स्तुति, प्रणाम, जप, मन्दिर, अभिषेक, तीर्थयात्रा, पूजन और प्रतिमाओंके निर्माण आदि करते ' मैं शुद्धचिद्रूप स्वरूप हूँ ' ऐसा भाते हैं ।
भावार्थ:-जिस प्रकार बुद्धिमान पुरुषोंको मल-मूत्र त्याग, खाना, पीना, इन्द्रिय और कामका विजय, मौन, आसन, गमन, शील, तप, व्रत आदि कार्य करने पड़ते हैं, बिना इन्हें किये उनका काम चल नहीं सकता, उसी प्रकार " मैं शुद्धचिद्रप हूँ" इस प्रकारके बिना ध्यानके भी उनका कार्य नहीं चल सकता, इसलिये वे शुद्धचिद्रूपका स्मरण करते अन्य कार्य करते हैं ।। १ ।।
कुर्वन् यात्रार्चनाचं खजयजपतपोऽध्यापनं साधुसेवां दानौघान्योपकारं यमनियमधरं स्वापशीलं दधानः । उद्भीभावं च मौनं व्रतसमितिततिं पालयन् संयमौधं चिद्रूपध्यानरक्तो भवति च शिवभाग नापरः स्वर्गभाक् च ॥२॥ त. १७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org