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________________ चौदहवां अध्याय । भावार्थ:--जिस प्रकार पनिहारी जलसे भरे हुये घड़ेंमें अपना चित्त स्थिर कर वचन और शरीरकी चेष्टा करती है उसीप्रकार जो मनुष्य संसारके संतापसे खिन्न हैं और उससे रहित होना चाहते हैं उन्हें भी चाहिये कि वे शुद्धचिद्रपमें अपना मन स्थिर कर उसकी प्राप्तिके लिये वचन और शरीरका व्यापार करें; क्योंकि शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिसे समस्त संतापका नाश होता है और शांतिमय सुख मिलता है ।। ३ ।। वैराग्यं त्रिविधं प्राप्य संगं हित्वा द्विधा ततः । तत्वविद्गुरुमाश्रित्य ततः स्वीकृत्य संयमं ॥ ४ ॥ अधीत्य सर्वशास्त्राणि निर्जने निरुपद्रवे । स्थाने स्थित्वा विमुच्यान्यचिन्तां धृत्वा शुभासनं ।। ५ ।। पदस्थादिकमभ्यस्य कृत्वा साम्यावलम्बनं । मानसं निश्चलोकृत्य स्वं चिद्रूपं स्मरंति ये ॥ ६ ॥ त्रिकलं । पापानि प्रलयं यांति तेषामभ्युदयप्रदः । धर्मो विवर्द्धते मुक्तिप्रदो धर्मश्च जायते ॥ ७ ॥ ____ अर्थः----जो महानुभाव मनसे, वचनसे और कायसे वैराग्यको प्राप्त होकर, वाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहोंको छोड़कर, तत्त्ववेना गुरुका आश्रय और संयमको स्वीकार कर, समस्त शास्त्रों के अध्ययनपूर्वक निर्जन निरुपद्रव स्थानमें रहते हैं और वहाँ समस्त प्रकारकी चिन्ताओंका त्याग, शुभ आसनका धारण, पदस्थ, पिंडस्थ, आदि व्यानोंका अवलंबन, समताका आश्रय और मनका निश्चलपना धारण कर शुद्धचिपका स्मरण ध्यान करते हैं उनके समस्त पाप जड़से नष्ट हो जाते हैं, नाना प्रकारके कल्याणोंके करनेवाले धर्मकी वृद्धि होती है और उससे उन्हें मोक्ष मिलता है ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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