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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी गृही यतिन यो वेत्ति शुद्धचिद्रूप लक्षणं ।
तस्य पंचनमस्कारप्रमुखस्मरणं वरं ॥ १२ ॥
अर्थः-जो गृहस्थ या मुनि शुद्धचिद्रूपका स्वरूप नहीं जानता, उसके लिये पंचपरमेष्ठीके मंत्रोंका स्मरण करना ही कार्यकारी है उसीसे उसका कल्याण हो सकता है ।। १२ ।।
संक्लेशस्य विशुद्धश्च फलं ज्ञात्वा परीक्षणं ।। तं त्यजेत्तां भजत्यंगी योऽत्रामुत्र सुखी स हि ॥ १३ ॥
अर्थः-जो पुरुष संक्लेश और विशुद्धिके फलको परीक्षा पूर्वक जानकर संक्लेशको छोड़ता है और विशुद्धिका सेवन करता है उस मनुष्यको इस लोक, परलोक दोनों लोकोंमें सुख मिलता है ।। १३ ।।
संक्लेशे कर्मणां बन्धोऽशुभानां दुःखदायिनां ।। विशुद्धौ मोचनं तेषां बन्धो वा शुभकर्मणां ॥ १४ ॥
अर्थः--क्योंकि संक्लेशके होनेसे अत्यन्त दुःखदायी अशुभ कर्मोंका आत्माके साथ सम्बन्ध होता है और विशुद्धताकी प्राप्तिसे इन अशुभ कर्मोंका सम्बन्ध छूटता है तथा शुभ कर्मोका सम्बन्ध होता है ।
भावार्थ:-जब तक यह आत्मा विशुद्ध नहीं संक्लेशमय रहता है, तब तक इसके साथ नाना प्रकारके अशुभ कर्मोका बन्ध होता रहता है और उससे इसे अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं; परन्तु जिस समय यह आत्मा विशुद्धताका अनुभव करने लग जाता है उस समय इससे अशुभ कर्मोका सम्बन्ध छूट जाता है और सुखदायक शुभकर्मोंका सम्बन्ध होने लगता है, इसलिए दुःखदायक संक्लेशको छोड़कर सुखदायक चिद्रूपकी शुद्धिका ही आश्रय करना योग्य है ।। १४ ।।
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