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तेरहवां अध्याय ]
शुद्धचिद्रूपकस्याशो द्वादशांगश्रुतार्णवः । शुद्धचिद्रपके लब्धे तेन किं मे प्रयोजन ॥ ९ ॥
अर्थः-आचारांग, सूत्रकृतांग आदि द्वादशांगरूपी समुद्र शुद्धचिद्रूपका अंश है, इसलिये यदि शचिद्रप प्राप्त हो गया है, तो मुझे हादशांगसे क्या प्रयोजन ? वह तो प्राप्त हो ही गया ।
भावार्थ:-द्वादशांगको प्राप्ति संसारमें अतिशय दुर्लभ है; परन्तु शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति होते ही उसकी प्राप्ति आपसे आप हो जाती है; क्योंकि वह शुद्धचिद्रूपका अंश है, इसलिये कल्याणके आकांक्षी जीवोंको चाहिये कि वे शुद्धचिद्रूपकी ही प्राप्ति करें । द्वादशांग आदि पदार्थोंकी प्राप्तिके लिये शुद्धचिद्रूपके लाभका ही प्रयत्न करें ।। ९ ।।
शुद्धचिद्रपके लब्धे कर्त्तव्यं किंचिदस्ति न । अन्यकार्यकृती चिंता वृथा मे मोहसंभवा ॥ १० ॥
अर्थः-मुझे संसारमें शुद्धचिद्रूपका लाभ हो गया है, इसलिये कोई मुझे करनेके लिये अवशिष्ट न रहा, सब कर चुका तथा शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति हो जाने पर अन्य कार्योके लिये मुझे चिन्ता करना भी व्यर्थ है; क्योंकि यह मोहसे होती है-अर्थात् मोहमे उत्पन्न हुई चिन्तासे मेरा कदापि कल्याण नहीं हो सकता ॥ १० ॥
वपुषां कमणां कर्महेतुतां चितनं यदा । तदा क्लेशो विशुद्धिः स्याच्छुद्धचिपचिंतनं ॥ ११ ॥
अर्थः-शरीर, कर्म और कर्मके कारणोंका चितवन करना क्लेश है अर्थात् उनके चितवनसे आत्मामें क्लेश उत्पन्न होता है और शुद्धचिद्रूपके चिन्तवनसे विशद्धि होती है ।।११।।
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