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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी राज्ञो ज्ञातेश्च दस्योर्खलनजलरीपोरितितो मृत्युरोगात् दोपोद्भतेरकीर्तेः सततमतिभयं रैनृगोमन्दिरस्य । चिंता तन्नाशशोको भवति च गृहिणां तेन तेपां विशुद्धं चिद्रपध्यानरत्नं श्रुतिजलधिभवं प्रायशो दुर्लभंस्यात् ।। ७ ।।
अर्थः-संसारी जीवोंको राजा, जाति, चोर, अग्नि, जल, वैरी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि, ईति, मृत्यु, रोग, दोष और अकीतिसे सदा भय बना रहता है । धन, कुटुम्बी, मनुष्य, पशु और मकानकी चितायें लगी रहती हैं एवं उनके नाशसे शोक होता रहता है, इसलिये उन्हें शास्त्ररूपी अगाध समुद्रसे उत्पन्न, शुद्धचिद्रूपके ध्यानकी प्राप्ति होना नितांत दुर्लभ है ।
भावार्थ:---भयभीत मनुष्य अगाध समुद्रसे जिस प्रकार सहसा रत्न प्राप्त नहीं कर सकता, उसीप्रकार जो मनुष्य राजा, जाति, चोर, अग्नि, जल आदिसे भय करनेवाला है, धन, धान्य, पशु, मकान आदिको चिन्ता और उसके नाणसे शोकाकुल रहता है, वह प्रायः शुद्धचिद्रूपका ध्यान नहीं कर सकता ।। ७ ।।
पठने गमने संगे चेतनेऽचेतनेऽपि च । किंचित्कार्यकृतौ पुंसा चिंता हेया विशुद्धये ॥ ८ ॥
अर्थः-जो महानुभाव विशुद्धताका आकांक्षी है, अपनी आत्माको निष्कलंक बनाना चाहता है, उसे चाहिये कि वह पढ़ने, गमन करने, चेतन-अचेतन दोनों प्रकारके परिग्रह बारने और किसी अन्य कार्यके करने में किसी प्रकारकी चिन्ता न करे अर्थात् अन्य पदार्थों की चिन्ता करनेसे आत्मा विशुद्ध नहीं बन सकती ।। ८ ।।
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