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________________ तेरहवां अध्याय } । १२१ भावार्थः-प्रायः संसारमं यह बात प्रत्यक्ष गोचर होती है कि कहीं रागके सम्बन्धसे नानाप्रकारके विकार देखने में आते हैं और कहीं द्वेष और मोहके सम्बन्धसे; परन्तु रागद्वेष आदिका विकार देख किसी प्रकार क्षोभ न करना चाहिये; क्योंकि इसका नाम संसार है और इसमें रागद्वेष विकारों के सिवाय उत्तम बात होनी कठिन है, इसलिये हे आल्मन् ! यदि तुं रागद्वेष आदिके विकारोंसे रहित होना चाहता है, तो तूं मोक्षमार्गका स्मरण कर उसीसे तेरा कल्याण होगा ।। ५ ।। विपर्यस्तो मोहादहमिह विवेकेन रहितः सरोगो निःस्वो वा विमतिरगुणः शक्तिविकलः ॥ सदा दोपी निंद्योऽगुरुविधिरकर्मा हि वचनं वदन्नंगी सोऽयं भवति भुवि वैशुद्धयसुखभाग् ॥ ६ ॥ अर्थः-मैं मोहके कारण विपर्यस्त होकर ही अपनेको विवेकहीन, रोगी, निर्धन, मतिहीन, अगुणी, शक्तिरहित, दोषी, निन्दनीय, हीन क्रियाका करनेवाला, अकर्मण्य-आलसी मानता हूँ । इसप्रकार वचन बोलनेवाला ( --ऐसी भावना करनेवाला) विशुद्धताके सुखका अनुभव करता है ।। भावार्थः-मैं वास्तविक दृष्टिसे शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यस्वरूप हूँ । सब पदार्थोंका ज्ञाता-दृष्टा और सदा आनन्दस्वरूप हूँ; किन्तु अज्ञानवश मोहके जाल में फंसकर मैं विपरीत सा हो गया हूँ । विवेकहीनता, सरोगता, निर्धनता, पागलपन, शक्ति रहितपना आदि कर्मके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए हैं । जो मनुष्य ऐसा विचार किया करता है, वह अवश्य विशुद्धताजन्य सुखका अनुभव करता है ।। ६ ।। त. १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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