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________________ ! तत्त्वज्ञान तरंगिणी सत्पूज्यानां स्तुतिनतियजनं षट्कर्मावश्यकानां वृत्तादीनां दृढतरधरणं सत्तपस्तीर्थ यात्रा । संगादीनां त्यजनमजननं क्रोधमानादिकानामाप्तैरुक्तं वरतरकृपया सर्वमेतद्धि शुद्धथै ॥ ४ ॥ अर्थः-जो पुरुष उत्तम और पूज्य हैं उनकी स्तुति, नमस्कार और पूजन करना, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि छ प्रकारे आवश्यकोंका आचरण करना, सम्यक् चारित्रको दृढ़ रूपसे धारण करना, उत्तम तप और तीर्थ यात्रा करना, बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग करना तथा क्रोध, मान, माया आदि कषायोंको उत्पन्न न होने देना आदि विशुद्धिके कारण हैं, बिना इन बातोंके आचरण किये विशुद्धि नहीं हो सकती । भावार्थः- उत्तम मुनि आदि महापुरुषोंकी विनय आदि करनेसे, सामायिक आदि आवश्यकोंके आचरणसे, सम्यक्चारित्रके पालनसे, उत्तम तप, तीर्थयात्राके करनेसे, परिग्रहोंके त्यागसे और क्रोध आदि कषायोंके न उत्पन्न होने देनेसे कर्मोका नाश होता है और कर्मोके नाशसे आत्मामें विशुद्धपना आता है, इसलिये जो मनुष्य अपने आत्माकी विशुद्धताके अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे उपयुक्त बातों पर अवश्य ध्यान दें और अपनी आत्माको शुद्ध बनावें ।। ४ ।। रागादिविकियां दृष्ट्वांगिनां क्षोभादि मा व्रज । भवे तदितरं किं स्यात् स्वच्छं शिवपदं स्मर ॥ ५ ॥ अर्थः-हे आत्मन् ! मनुष्योंमें रागद्वेष आदिका विकार देख तुझे किसी प्रकार क्षोभ नहीं करना चाहिये; क्योंकि संसारमें सिवाय राग आदिके विकारके और होना ही क्या है ! इसलिये तू अतिशय विशुद्ध मोक्षमार्गका ही स्मरण कर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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