________________
तेरहवां अध्याय शुद्धचिपकी प्राप्ति के लिये विशुद्धिकी आवश्यकताका प्रतिपादन
विशुद्धं वसनं श्लाघ्यं रत्नं रूप्यं च कांचनं । भाजनं भवनं सर्वैर्यथा चिद्रपकं तथा ॥ १ ॥
अर्थ :- जिस प्रकार निर्मल वस्त्र, रत्न, चांदी, सोना पात्र और भवन आदि पदार्थ उत्तम और प्रशंस्य गिने जाते हैं, उसीप्रकार यह शुद्धचिद्रूप भी अति उत्तम और प्रशंस्य है ।। १ ।।
रागादिलक्षणः पुंसि संक्लेशोऽशुद्धता मता । तन्नाशो येन चांशेन तेनांशेन विशुद्धता ॥ २ ॥
अर्थ : - पुरुषमें रागद्वेष आदि लक्षणका धारण संक्लेश, अशुद्धपना कहा जाता है और जितने अंशमें रागद्वेष आदिका नाश हो जाता है उतने अंश में विशुद्धपना कहा जाता है ।
भावार्थ:- यदि शुद्ध निश्चयनयसे देखा जाय तो यह आत्मा सर्वथा विशुद्ध है; परन्तु रागद्वेष आदिके सम्बन्धसे अशुद्ध हो जाता है; किन्तु जितने अंश में रागद्वेष आदि नष्ट होते जाते हैं उतने अंशमें यह शुद्ध होता चला जाता है || २ ||
येनोपायेन संक्लेशचिद्रपाद्याति वेगतः । विशुद्धिरेति चिद्रूपे स विधेयो मुमुक्षुणा ॥ ३ ॥
अर्थः – जो जीव मोक्षाभिलाषी हैं- अपनी आत्माको समस्त कर्मोंसे रहित करना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि जिस उपाय से यह संक्लेश दूर हो विशुद्धपना आवे वह उपाय अवश्य करें ।। ३ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org