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तेरहवां अध्याय ] .
[ १२५ विशुद्धः शुद्धचिद्रपसद्ध्यानं मुख्यकारणं ।
संक्लेशस्तद्विधाताय जिनेनेदं निरूपितं ।। १५ ॥
अर्थः-यह विशुद्धि शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें मुख्य कारण है-इसीसे शुद्धचिद्रूपके ध्यानको प्रानि होती है और संक्लेश शुद्धचिद्रूपके ध्यानका विघातक है, जब तक आत्मामें किसी प्रकारका संक्लेश रहता है तब तक शुद्धचिद्रूपका ध्यान कदापि नहीं हो सकता ।। १५ ।।
अमृतं च विशुद्धिः स्यान्नान्यल्लोकप्रभाषितं ।
अत्यंतसेवने कष्टमन्यस्यास्य परं सुखं ॥ १६ ॥
अर्थः-संसारमें लोग अमृत जिसको कहकर पुकारते हैं--अथवा जिस किसी पदार्थको लोग अमृत बतलाते हैं, वह पदार्थ वास्तव में अमृत नहीं है। वास्तविक अमृत तो विशुद्धि ही है; क्योंकि लोककथित अमतके अधिक सेवन करनेसे तो कष्ट भोगना पड़ता है और विशुद्धिरूपी अमृतके अधिक सेवन करनेसे परम सुख ही मिलता है, किसी प्रकारका भी कष्ट नहीं भोगना पड़ता, इसलिये जिससे सब अवस्थाओंमें मुख मिले वही अमत सच्चा है ।। १६ ।।।
विशुद्धिसेवनासक्ता वसंति गिरिगहरे । विमुच्यानुपमं राज्यं खसुखानि धनानि च ।। १७ ।।
अर्थ:-जो मनुष्य विशद्धताके भक्त हैं, अपनी आत्माको विशुद्ध बनाना चाहते हैं, वे उसकी सिद्धि के लिये पर्वतकी गुफाओंमें निवास करते हैं तथा अनुपम राज्य, इन्द्रियसुख और संपत्तिका सर्वथा त्याग कर देते हैं- राज्य आदिकी ओर जरा भी चित्तको भटकने नहीं देते ।। १५ ।।
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