SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थः - यह रत्नत्रय निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है । और व्यवहार रत्नत्रय हो वहाँ निश्चय रत्नत्रयकी प्रकटता होती है ।। ५ ।। ___ भावार्थः-- जीव आदि पदार्थोका श्रद्धान, ज्ञान और कर्मोके नष्ट करनेके लिये तप आदि करना-चारित्र, यह तो व्यवहार रत्नत्रय है और निश्चय रत्नत्रय आत्मस्वरूप है; परन्तु बिना व्यवहार रत्नत्रयके निश्चय रत्नत्रय कभी प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये निश्चय रत्नत्रयमें व्यवहार रत्नत्रय कारण है ।। ५ ।। श्रद्धानं दर्शनं सप्ततत्त्वानां व्यवहारतः । __ अष्टांगं त्रिविधं प्रोक्तं तदौपशमिकादितः ॥६॥ अर्थः-व्यवहारनयसे सातों तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और इसके आठ अंग हैं तथा औपशमिक, क्षायिक एवं क्षायोपशमिकके भेदसे तीन प्रकारका है । __ भावार्थ:-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं, इनमें भगवान जिनेन्द्रने जो इनका स्वरूप बतलाया है वह उसीप्रकारसे है अन्यथा नहीं, इस प्रकारका श्रद्धान-विश्वास रखना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इसके निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं और सम्यग्दर्शनके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन भेद हैं ॥ ६ ॥ सता वस्तूनि सर्वाणि स्याच्छन्देन वचांसि च । चिता जगति व्याप्तानि पश्यन् सदृष्टिरुच्यते ॥ ७ ॥ अर्थ:--जो महानुभाव सत्रूपसे समस्त पदार्थोंका विश्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy