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________________ बारहवाँ अध्याय ] [ १११ बिना रत्नत्रयकी प्राप्तिके शुद्धचिद्रूपकी भी प्राप्ति नहीं हो सकती । भावार्थ:-जिस प्रकार ऋद्धिकी प्राप्तिमें तप, पुत्रीकी उत्पत्तिमें पिता और वर्षाकी उत्पत्तिमें मेघ असाधारण ( निमित्त ) कारण हैं । बिना तप आदिके ऋद्धि आदिकी प्राप्ति नहीं हो सकती, उसी प्रकार शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिमें असाधारण कारण रत्नत्रय है, बिना इसे प्राप्त किए शुद्धचिद्रूपका लाभ नहीं हो सकता ।। ३ ।। दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपात्मप्रवर्तनं ।। युगपद् भण्यते रत्नत्रयं सर्वजिनेश्वरैः ॥ ४ ॥ अर्थः-भगवान जिनेश्वरने एक साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रस्वरूप आत्माकी प्रवृत्तिको रत्नत्रय कहा है । ___ भावार्थः----गुण-गुणीसे कभी भिन्न नहीं हो सकते, इसलिए जितने गुण हैं वे अपने गुणियोंके स्वरूप हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भी आत्माके गुण हैं, न कभी ये आत्मा से जुदे रह सकते हैं और न सिवाय आत्माके किसी पदार्थमें ही पाए जाते हैं । हां, यह बात अवश्य है कि विरोधी कर्मोकी मौजूदगीमें ये प्रच्छन्नरूपसे रहते हैं; परन्तु जिस समय इनके विरोधी कर्म नष्ट हो जाते हैं और ये तीनों एक साथ आत्मा में प्रकट हो जाते हैं उसी समयकी अवस्थाको रत्नत्रयकी प्राप्ति कहते हैं और रत्नत्रयकी प्राप्ति ही शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिमें असाधारण कारण है ।। ४ ।। निश्चयव्यवहाराभ्यां द्विधा तत्परिकीर्तितं । सत्यस्मिन् व्यवहारे तन्निश्चयं प्रकटीभवेत् ॥ ५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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