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बारहवाँ अध्याय शुद्धचिद्पकी प्राप्तिके असाधारणकारण रत्नत्रय रत्नत्रयोपलंभेन विना शुद्धचिदात्मनः ।
प्रादुर्भावो न कस्यापि श्रूयते हि जिनागमे ॥ १ ॥
अर्थः-जैनशास्त्रसे यह बात जानी गई है कि बिना रत्नत्रयको प्राप्त किए आज तक किसी भी जीवको शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति न हुई । सबको रत्नत्रयके लाभके बाद ही हुई है ।
भावार्थ:-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन आत्माके गुणोंको रत्नत्रय कहते हैं और ये तीनों शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिमें असाधारण कारण हैं, इसलिए बिना रत्नत्रयके लाभके किसीको भी शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति नहीं हो सकती । जिन्हें भी उसकी प्राप्ति हुई है उन्हें प्रथम रत्नत्रयकी प्राप्ति हो गई है और उसके बाद ही शुद्धचिद्रूपका लाभ हुआ है ।। १ ॥
बिना रत्नत्रयं शुद्धचिद्रूपं न प्रपन्नवान् ।
कदापि कोऽपि केनापि प्रकारेण नरः क्वचित् ॥ २ ॥ ___ अर्थः-बिना रत्नत्रयको प्राप्त किये आजतक किसी मनुष्यने कहीं और कभी भी किसी दूसरे उपायसे शुद्धचिद्रूपको प्राप्त न किया । सभी ने पहिले रत्नत्रयको पाकर ही शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति की है ।। २ ।।
रत्नत्रयाद्विना चिद्रपोपलब्धिन जायते । __ यथद्धिस्तपसः पुत्री पितुर्वृष्टिबलाहकात् ॥ ३ ॥
अर्थ:-जिस प्रकार तपके बिना ऋद्धि, पिताके बिना पुत्री और मेघके बिना वर्षा नहीं हो सकती, उसी प्रकार
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