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________________ बारहवाँ अध्याय ] [ ११३ करता है, अनेकांत रूपसे समस्त वचनोंको और ज्ञानसे समस्त जगतमें व्याप्त ( सर्व पदार्थों को ) देखता है, श्रद्धता है, वह सम्यग्दृष्टि है । भावार्थ:- मेरु आदि पदार्थ ऐसे हैं जिन्हें नेत्रसे नहीं देख सकते और सर्वजके वचनसे उनके अस्तित्त्वका निश्चयकर उनकी मौजूदगीका श्रद्धान करना पड़ता है, इसलिये जिस महानुभावको मेरु आदिके अस्तित्त्वसे उनके मौजूदगीका श्रद्धान है । वचनोंमें किसी प्रकारका विरोध न आ जाय, इसलिये जो अनेकांतवाद पर पूर्ण विश्वास कर उसकी सहायतासे वचन बोलता है और यह समस्त जगत ज्ञानके गोचर है - इसके मध्यमें रहनेवाले पदार्थ ज्ञानके द्वारा स्पष्टरूपसे जाने जा सकते हैं । ऐसा जिसका पूर्ण श्रद्धान है वह व्यवहारनयसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है ।। ७ ।। स्वकीये शुद्धचिपे रुचिर्या निश्चयेन तत् । सद्दर्शनं मतं तज्ज्ञैः कर्मैधन हुताशनं ॥ ८ ॥ अर्थ :- आत्मिक शुद्धचिद्रूपमें जो रुचि करना है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है और यह कर्मरूपी ईंधन के लिये जाज्वल्यमान अग्नि है । ऐसा उसके ज्ञाता ज्ञानीयोंका मत है ॥ ८ ॥ यदि शुद्धं चिद्रपं निजं समस्तं त्रिकालंगं युगपत् । जानन् पश्यन् पश्यति तदा स जीवः सुदृकू तत्त्वात् ॥ ९ ॥ अर्थः- जो जीव तीन कालमें रहनेवाले आत्मिक शुद्ध समस्त चिद्रूपको एक साथ जानता देखता है, वास्तविक दृष्टि से वही सम्यग्द्दष्टि है । भावार्थ : - ऋजुसूत्रनयको अपेक्षा समस्त पदार्थ परिवर्तनशील त. १५ Jain Education International ܘ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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