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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी नरलोकेपि ये जाता नराः कर्मवशाद् घनाः । भोगभूम्लेच्छखंडेषु ते भवन्ति न तादृशः ॥ १४ ॥
अर्थ:--मनुष्य क्षेत्रमें भी जीव भोगभूमि और म्लेच्छखंडमें उत्पन्न हुये हैं उन्हें भी सघनरूपसे कर्मों द्वारा जकड़े हुये होनेके कारण शुद्धचिद्रूपका ध्यान और व्रतोंका आचरण करनेका अवसर प्राप्त नहीं होता ।। १४ ।।
आर्यखंडभवाः केचिद् विरलाः संति तादृशाः ! अस्मिन् क्षेत्रे भवा द्वित्राः स्युरद्य न कदापि वा ॥ १५ ॥
अर्थः-परन्तु जो जीव आर्यखण्डमें उत्पन्न हुए हैं, उनमेंसे भी विरले ही शुद्धचिद्रूपके ध्यानो और व्रतोंके पालक होते हैं तथा इस भरतक्षेत्रमें उत्पन्न होने वाले तो इस समय दो तीन ही हैं अथवा हैं ही नहीं ।। १५ ।।
अस्मिन् क्षेत्रेऽधुना संति बिरला जैनपाक्षिकाः । सम्यक्त्वसहितास्तत्र तत्राणुव्रतधारिणः ॥ १६ ॥ महाव्रतधरा धीराः संति चात्यंत दुर्लभाः । तत्त्वातत्वविदस्तेषु चिद्रक्तोऽत्यंतदुर्लभः ।। १७ ।।
अर्थः---इस क्षेत्रमें प्रथम तो इस समय सम्यग्दृष्टि पाक्षिक जैनी ही विरले हैं यदि वे भी मिल जाय तो अणुव्रत धारी मिलने कठिन हैं । अणुव्रत धारी भी हों तो धीर वीर महाव्रत धारी दुर्लभ हैं । यदि वे भी हों तो तत्त्व अतत्त्वोंके जानकर ( बहु श्रुतज्ञानी) बहुत कम हैं । यदि वे भी प्राप्त हो जॉय तो शुद्धचिद्रूप में रत मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ हैं ।
भावार्थः- इस संसार में सदा अनन्त जीव निवास करते रहते हैं । उनमें जिनवचन और जिनेन्द्रदेवके श्रद्धानी पाक्षिक मनुष्य बहुत कम हैं; उनसे भी कम अणुव्रतोंके पालक हैं,
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