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ग्यारहवाँ अध्याय |
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उनसे भी कम धीर-वीर महाव्रती हैं, महाव्रतियोंसे कम तत्त्वअतत्त्वों के जानकर हैं और उनसे भी कम चिद्रूपके प्रेमी हैं, इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि वे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिको अति दुर्लभ मान उसीका ध्यान करें ।। १६-१७ ।।
तपस्विपात्रविद्वत्सुः गुणिसद्गतिगामिषु ।
वंद्यस्तुत्येषु विज्ञेयः स एवोत्कृष्टतां गतः ॥ १८ ॥ अर्थ : - जो महानुभाव शुद्धचिपके ध्यानमें अनुरक्त हैं वे ही तपस्वी उत्तमपात्र, विद्वान, गुणी, समीचीन मार्गके अनुगामी और उत्तम वंदनीक स्तुत्य मनुष्योंमें उत्कृष्ट हैं ।। १८ ।। उत्सर्पिण्यवसर्पणकालेऽनाद्यंतवर्जिते स्तोकाः ।
चिद्रक्ता व्रतयुक्ता भवन्ति केचित्कदाचिच्च ॥ १९ ॥
अर्थ : - इस अनादि - अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमें शुद्धचिद्रूपके ध्यानी और व्रतोंके धारक बहुत ही कम मनुष्य होते हैं और वे कभी किसी समय, प्रति समय नहीं । भावार्थ:- जिसमें मनुष्योंकी आयु, बल, वीर्य, आदि वृद्धिगत ही वह उत्सर्पिणी काल है और जिसमें आयु आदिकी कमी होती जाय उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं । यह जो कालका अनादि-अनन्त प्रवाह है उसमें कभी किसी समय शुद्धचिद्रूपके ध्यानी और व्रतोंके पालक मनुष्य दृष्टिगोचर होते हैं प्रति समय नहीं तथा वे भी बहुत कम, अधिक नहीं ।। १९ ।।
मिथ्यात्वादिगुणस्थानचतुष्के संभवन्ति न । शुद्धचिपके रक्ता व्रतिनोपि रक्ता व्रतिनोपि कदाचन ॥ २० ॥ पंचमादिगुणस्थानदशके तादृशोंsगिनः । स्युरिति ज्ञानिना ज्ञेयं स्तोकजीव समाश्रिते ॥ २१ ॥
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