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ग्यारहवाँ अध्याय
[ १०५ भूषित रहते हैं; परन्तु ऐसे मनुष्य विरले ही हैं जो शुद्ध चिद्रूप में स्नेह करनेवाले और व्रतोंसे भूषित हों ।। ९ ।।
एकेंद्रियादसंज्ञाख्यापूर्णपयंतदेहिनः । अनन्तानन्तमाः संति तेषु न कोऽपि तादृशः ॥ १० ॥ पंचाक्षसंज्ञिपूर्णेषु केचिदासन्नभव्यतां । नृत्वं चालभ्य ताहक्षा भवंत्यार्याः सुबुद्धयः ॥ ११ ॥
अर्थः-एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत जीव इस संसार में अनन्तानन्त भरे हुये हैं उनमें इस तरहका सामर्थ्य ही नहीं है; परन्तु जो जीव पंचेन्द्रिय संज्ञी-मनसहित हैं उनमें भी जो आर्य-स्वपर स्वरूपके भले प्रकार जानकार हैं
और आसन्नभव्य-बहुत शीघ्र मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं वे ही ऐसा कर सकते हैं ।। १०-११ ।।
शुद्धचिद्रपसंलीनाः सव्रता न कदाचन । नरलोकबहिर्भागेऽसंख्यात द्वीपवाधिषु ॥ १२ ॥
अर्थः–अढाई द्वीप तक मनुष्य क्षेत्र है और उससे आगे असंख्यात द्वीप समुद्र हैं । उनमें रहनेवाले भी जीव कभी भी शुद्धचिद्रूपमें लीन और ( महा ) व्रतोंसे भूषित नहीं हो सकते ॥ १२ ॥
अधोलोके न सर्वस्मिन्नूलोकेऽपि सर्वतः । ते भवन्ति न ज्योतिष्के हा हा क्षेत्रस्वभावतः ॥ १३ ॥
अर्थः-समस्त अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और ज्योतिलोकमें भी क्षेत्रके स्वभावसे जीव शुद्धचिद्रूपका ध्यान और व्रतोंका आचरण नहीं कर सकते ।। १३ ।। त. १४
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