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________________ अर्थः [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी सिंह, सर्व, हाथी, इस संसार में बहुत से मनुष्य, व्याघ्र और अहितकारी शत्रु आदिको भी वश करनेवाले हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूपके ध्यान करनेवाले नहीं ।। ६ ।। १०४ - जलाग्निरोगराजाहिचौरशत्रनभस्वतां । दृश्यंते स्तंभने शक्ताः नान्यस्य स्वात्मचितया ॥ ७ ॥ अर्थ : - जल, अग्नि, रोग, राजा, सर्प, चोर, वैरी और पवनके स्तंभन करने में उनकी शक्तिको दबाने में भी वहुत से मनुष्य समर्थ हैं, परन्तु आत्मध्यान द्वारा पर पदार्थोंसे अपना मन हटानेके लिये सर्वथा असर्थ हैं । भावार्थ: - यद्यपि जल, अग्नि, रोग, राजा, सर्प, चोर और वैरी आदि पदार्थ संसार में अत्यंत भयंकर हैं । इनसे अपनी रक्षा कर लेना अति कठिन बात है; तथापि बहुत ऐसे भी बलवान मनुष्य हैं जो इन्हें देखते ही देखते वश कर लेते हैं; परन्तु वे भी अपने आत्मध्यानके बलसे परपदार्थोंसे ममत्व दूर करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं ।। ७ ।। प्रतिक्षणं प्रकुर्वेति चिंतनं परवस्तुनः । सर्वे व्यामोहिता जीवाः कदा कोऽपि चिदान्मनः ॥ ८ ॥ अर्थः - इस संसार में रहनेवाले जीव प्रायः मोहके जाल में जकड़े हुये हैं । उन्हें अपनी सुध-बुधका कुछ भी होश हवस नहीं है. इसलिये प्रतिक्षण वे परपदार्थोंका ही चिन्तवन करते रहते हैं, उन्हें ही अपनाते हैं; परन्तु शुद्धचिदात्माका कोई विरला ही चिन्तवन करता है ।। ८ । दृश्यंते बहवो लोके नानागुणविभूषिताः । विरलाः शुद्धचिपे स्नेहयुक्ता व्रतान्विताः ॥ ९ ॥ अर्थः-- बहुत से मनुष्य संसार में नाना प्रकारके गुणोंसे :-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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