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________________ १०० [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी निर्ममत्वाय न क्लेशो नान्ययांचा न चाटनं । न चिंता न व्ययस्तस्मान्निर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥ १७ ॥ अर्थः - इस निर्ममत्वके लिये न किसी प्रकारका क्लेश भोगना पड़ता है, न किसोसे कुछ मांगना और न चाटुकार ( चापलूसी) करना पड़ता है । किसी प्रकारकी चिन्ता और द्रव्यका व्यय भी नहीं करना पड़ता, इसलिये निर्मत्व ही ध्यान करनेके योग्य है ।। १७ ।। नास्रवो निर्ममत्वेन न बन्धोऽशुभकर्मणां । नासंयमो भवेत्तस्मान्निर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥ १८ ।। अर्थः-इस निर्ममत्वसे अशुभ कर्मका आस्रव और बन्ध नहीं होता, संयममें भी किसी प्रकार की हानि नहीं आतीवह भी पूर्णरूपसे पलता है, इसलिये यह निर्ममत्व ही चिन्तवन करनेके योग्य पदार्थ है ।। १८ ।। सदृष्टिनिवान् प्राणी निर्ममत्वेन संयमी । तपस्वी च भवेत् तस्मानिर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥ १९ ॥ अर्थः---इस निर्ममत्व की कृपासे जीव सम्यग्दृष्टि, ज्ञानवान, संयमी और तपस्वी होता है, इसलिये जीवोंको निर्ममत्वका ही चिन्तवन कार्यकारी है ।। १९ ।। रागद्वेपादयो दोषा नश्यति निर्ममत्वतः । साम्यार्थी सततं तस्मान्निर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥ २० ॥ अर्थः - इस निर्ममत्वके भले प्रकार पालन करनेसे राग द्वेष आदि समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं, इसलिये जो मनुष्य समता ( शांति )के अभिलाषी हैं-अपनी आत्माको संसारके दुःखोंसे मुक्त करना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे अपने मनको सब ओरसे हटाकर शुद्धचिद्रूपकी ओर लगावें-उसीका भले प्रकार मनन, ध्यान और स्मरण करें ।। २० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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