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दसवाँ अध्याय ।
ममेति चिंतनाद् बन्धो मोचनं न ममेत्यतः । बन्धनं द्वयक्षराभ्यां च मोचनं त्रिभिरक्षरैः ॥ १३ ॥
अर्थः- स्त्री-पुत्र आदि मेरे हैं ' इस प्रकारके चिन्तनसे कर्मोका बन्ध होता है और ये मेरे नहीं '-ऐसा चितनसे कर्म नष्ट होते हैं, इसलिये 'मम' ( मेरे ) ये दो अक्षर तो कर्मबन्धके कारण हैं और · मम न ' ( मेरे नहीं ) इन तीन अक्षरोंके चितवन करनेसे कर्मोकी मुक्ति होती है ।। १३ ।।
निर्ममत्वं परं तत्त्वं ध्यानं चापि व्रतं सुखं । शीलं खरोधनं तस्मानिर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥ १४ ॥
अर्थः-- यह निर्ममत्व सर्वोत्तम तत्त्व है, परम ध्यान, परम व्रत, परम सुख, परम शील है और इससे इन्द्रियोंके विषयोंका निरोध होता है, इसलिये उत्तम पुरुषोंको चाहिये कि वे इस शुद्धचिद्रूपका ही ध्यान करें ।। १४ ।।
याता ये यांति यास्यति भदंता मोक्षमव्ययं । निर्ममत्वेन ये तस्मानिमर्मत्वं विचिंतयेत् ॥ १५ ॥
अर्थः - जो मुनिगण मोक्ष गये, जा रहे हैं और जायेंगे उनके मोक्षकी प्राप्तिमें यह निर्ममत्व ही कारण है इसीकी कृपासे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई है, इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको निर्ममत्वका ही ध्यान करना चाहिये ।। १५ ।।
निर्ममत्वे तपोपि स्यादुत्तमं पंचमं व्रतं । धर्मोऽपि परमस्तस्मान्निर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥१६॥
अर्थः--परपदार्थोंकी ममता न रखनेसे-भले प्रकार निर्ममत्वके पालन करनेसे, उत्तम तप और पांचवें निष्परिग्रह नामक व्रतका पूर्ण रूपसे पालन होता है, सर्वोत्तम धर्मकी भी प्राप्ति होती है इसलिये यह निर्ममत्व ही ध्यान करने योग्य है ।। १६ ।।
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