________________
९८ )
| तत्त्वज्ञान तरंगिणी शुभाशुभानि कर्माणि मम देहोऽपि वा मम । पिता माता स्वसा भ्राता मम जायात्मजात्मजः ।। ८ ।। गौरश्वोऽजा गजो रा विरापणं मंदिरं मम । पू: राजा मम देशश्व ममत्वमिति चिंतनम् ॥ ९ ।। युग्मं ।।
अर्थः - शुभ-अशुभ कर्म मेरे हैं, शरीर, पिता, माता, बहिन, भाई, स्त्री, पुत्र, गाय, अश्व, बकरी, हाथी, धन, पक्षी, बाजार, मन्दिर, पुर, राजा और देश मेरे हैं । इस प्रकारका चितवन ममत्व है अर्थात् इनको अपनाना ममत्व कहलाता है ।। ८-९॥
निर्ममत्वेन चिद्रपप्राप्तिर्जाता मनीषिणां । तस्मात्तदर्थना चिंत्यं तदेवैकं मुहर्मुहुः ॥ १० ॥
अर्थः --जिन किन्हीं विद्वान मनुष्योंको शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति हुई है उन्हें शरीर आदि परपदार्थों में ममता न रखनेसे ही हुई है, इसलिये जो महानुभाव शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे निर्ममत्वका ही बार बार चिन्तवन करें, उसीकी और अपनी दृष्टि लगाये ।। १० ।।
शुभाशुभानि कर्माणि न मे देहोपि नो मम । पिता माता स्वसा भ्राता न मे जायात्मजात्मजः ॥ ११ ॥ गौरवो गजो रा बिरापणं मन्दिरं न मे । पूराजा मे न देशो निर्ममत्वमिति चिंतनं ॥ १२ ॥ युग्मं ।।
अर्थः-शुभ-अशुभ कर्म मेरे नहीं हैं, देह, पिता, माता, बहिन, भाई, स्त्री, पुत्री, पुत्र, गाय, अश्व, हाथी, धन, पक्षी, बाजार, मन्दिर, पुर, राजा और देश भी मेरे नहीं । इस प्रकारका जो मनमें चिन्तवन करना है, वह निर्ममत्व है ।। ११-१२ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org