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________________ दसवां अध्याय ] [ १०१ विचार्यत्थमहंकारममकारौ विमुंचति । यो मुनिः शुद्धचिद्रूपध्यानं स लभते त्वरा ॥ २१ ॥ अर्थः- इस प्रकार जो मुनि अहंकार और ममकारको अपने वास्तविक स्वरूप-शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके नाश करने वाले समझ उनका सर्वथा त्याग कर देता है, अपने मनको रंचमात्र भी उनकी ओर जाने नहीं देता उसे शीघ्र ही संसाग्में शुद्धचिद्रूपके ध्यान की प्राप्ति हो जाती है । भावार्थ:--हमें शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिसे ही निराकुलतामय मुख मिल सकता है, इसलिये उसीका ध्यान करना आवश्यक है; परन्तु जब तक स्त्री पुत्र आदि पर पदार्थ मेरे हैं और मैं उनका हूँ या मैं देह स्वरूप हूँ, कर्म स्वरूप हूं ऐसा विचार चित्त में बना रहता है तब तक कदापि शुद्धचिद्रूपका ध्यान नहीं हो सकता, इसलिये जो मुनिगण शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके अभिलाषी हैं इन्हें चाहिये कि वे अहंकार, ममकारका सर्वथा त्याग कर दें और शुद्धचिद्रूपके ध्यान की ओर अपना चित्त झुकावें ।। २६ ।। इति मुमुक्षु भट्टारक ज्ञानभूपण विरचितायां तत्त्वज्ञान तरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपध्यानायाहंकारममकारत्याग प्रतिपादको दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ इस प्रकार मोक्षाभिलाषी भट्टारक ज्ञानभूषण द्वारा निमित्त तत्वज्ञान तरंगिणीमें शुद्धचिद्रपका ध्यान करनेके लिये अहंकार ममकारके त्यागका बतलानेवाला दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ।। १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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