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स्मरंति परद्रव्याणि मोहान्मूढाः प्रतिक्षणं । शिवाय स्वं चिदानन्दमयं नैव कदाचन ॥ १८ ॥
अर्थ :- मूढ़ मनुष्य मोहके वश हो प्रति समय परद्रव्यका स्मरण करते हैं; परन्तु मोक्षके लिये निज शुद्धचिदानन्दका कभी भी ध्यान नहीं करते ।। १८ ।।
[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी
मोह एव परं वैरी नान्यः कोऽपि विचारणात | ततः स एव जेतव्यो बलवान् धीमताssदरात् ॥ १९ ॥
अर्थः-- विचार करनेसे मालूम हुआ है कि यह मोह ही जीवोंका अहित करने वाला महा बलवान बैरी है । इसीके आधीन हो जीव नाना प्रकारके क्लेश भोगते रहते हैं, इसलिये जो मनुष्य विद्वान हैं— आत्मा के स्वरूप के जानकार हैं उन्हें चाहिये कि वे सबसे पहिले इस मोहको जीतें - अपने वशमें
करें ।। १९ ।।
भवकूपे
महामोहपंकेऽनादिगतं शुद्धचिद्रूपसद्धयान रज्जत्रा सर्व
जगत् । समुद्धरे ॥ २० ॥
अनादिकाल से संसाररूपी
अर्थः- यह समस्त जगत विशाल कूपके अन्दर महामोहरूपी कीचड़ में फँसा हुआ है, इसलिये अब मैं शुद्धचिद्रूपके ध्यानरूपी मजबूत रस्सीके द्वारा इसका उद्धार करूंगा ।
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भावार्थ:- जिस प्रकार कुवेमें कीचड़के अन्दर फँसा हुआ पदार्थं रस्सी के सहारे ऊपर खींच लिया जाता हैं । उसीप्रकार यह समस्त जगत इस संसार में महामोहसे मूढ़ हो रहा है और इसे अपने हित-अहितका जरा भी ध्यान नहीं है, इसलिये शुद्धचिद्रूपके ध्यानकी सहायता से मैं इसका उद्धार करना चाहता हूँ ।। २०
।।
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