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________________ ९४ ] स्मरंति परद्रव्याणि मोहान्मूढाः प्रतिक्षणं । शिवाय स्वं चिदानन्दमयं नैव कदाचन ॥ १८ ॥ अर्थ :- मूढ़ मनुष्य मोहके वश हो प्रति समय परद्रव्यका स्मरण करते हैं; परन्तु मोक्षके लिये निज शुद्धचिदानन्दका कभी भी ध्यान नहीं करते ।। १८ ।। [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी मोह एव परं वैरी नान्यः कोऽपि विचारणात | ततः स एव जेतव्यो बलवान् धीमताssदरात् ॥ १९ ॥ अर्थः-- विचार करनेसे मालूम हुआ है कि यह मोह ही जीवोंका अहित करने वाला महा बलवान बैरी है । इसीके आधीन हो जीव नाना प्रकारके क्लेश भोगते रहते हैं, इसलिये जो मनुष्य विद्वान हैं— आत्मा के स्वरूप के जानकार हैं उन्हें चाहिये कि वे सबसे पहिले इस मोहको जीतें - अपने वशमें करें ।। १९ ।। भवकूपे महामोहपंकेऽनादिगतं शुद्धचिद्रूपसद्धयान रज्जत्रा सर्व जगत् । समुद्धरे ॥ २० ॥ अनादिकाल से संसाररूपी अर्थः- यह समस्त जगत विशाल कूपके अन्दर महामोहरूपी कीचड़ में फँसा हुआ है, इसलिये अब मैं शुद्धचिद्रूपके ध्यानरूपी मजबूत रस्सीके द्वारा इसका उद्धार करूंगा । Jain Education International भावार्थ:- जिस प्रकार कुवेमें कीचड़के अन्दर फँसा हुआ पदार्थं रस्सी के सहारे ऊपर खींच लिया जाता हैं । उसीप्रकार यह समस्त जगत इस संसार में महामोहसे मूढ़ हो रहा है और इसे अपने हित-अहितका जरा भी ध्यान नहीं है, इसलिये शुद्धचिद्रूपके ध्यानकी सहायता से मैं इसका उद्धार करना चाहता हूँ ।। २० ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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