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________________ नववाँ अध्याय । ९५ शुद्धचिद्रपसद्धयानादन्यत्कार्य हि मोहजं । तस्माद् बन्धस्ततो दुःखं मोह एव ततो रिपुः ।। २१ ।। अर्थः-संसारमें सिवाय शुद्धचिद्रूपके ध्यानके, जितने कार्य हैं सब मोहज-मोहके द्वारा उत्पन्न हैं । सबकी उत्पत्ति में प्रधान कारण मोह है तथा मोहसे कर्मोका बन्ध और उससे अनन्ते क्लेश भोगने पड़ते हैं, इसलिये सबसे अधिक जीवोंका वैरी मोह ही है ।। २१ ।।। मोहं तज्जातकार्याणि संगं हित्वा च निर्मलं । शुद्धचिद्रपसद्धयानं कुरु त्यक्त्वान्यसंगतिं ।। २२ ।। अर्थः-अतः जो मनुष्य शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे मोह और उससे उत्पन्न हुये समस्त कार्योंका सर्वथा त्याग कर दे-उनकी ओर झांककर भी न देखे और ससस्त पर द्रव्योंसे ममता छोड़ केवल शुद्धचिद्रूपका ही मनन, ध्यान और स्मरण करे ।। २२ ।। इति मुमुक्षु भट्टारक श्री ज्ञानभूषणविरचितायां तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपध्यानाय मोहत्यागप्रतिपादको नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ इस प्रकार मोक्षाभिलापी भट्टारक ज्ञानभूषण द्वारा निर्मित तत्त्वज्ञान तरंगिणीमें शुद्धचिद्रूपके ध्यान करनेके लिये मोहके त्यागका वर्णन करनेवाला नववाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥ ९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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