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________________ नववा अध्याय ] तक तक इसका कभी भी शुद्धचिद्रूपमें निश्चलरूपसे प्रेम नहीं हो सकता ।। १६ ।। अंधे नृत्यं तपोऽज्ञे गदविधिरतुला स्वायुषो वाऽवसाने गीतं वाधिर्ययुक्ते वपनमिह यथाऽयूषरे वार्यतृष्णे । स्निग्धे चित्राण्यभव्ये रुचिविधिरनघः कुंकुमं नीलवस्त्र नात्मप्रीतौ तदाख्या भवति किल वृथा निः प्रतीतौ सुमंत्रः ॥१७॥ अर्थः-जिस प्रकार अंधेके लिये नाच, अनानीके लिये तप, आयुके अंतमें औषधिका प्रयोग, बहिरेके लिये गीतोंका गाना, ऊसर भूमिमें अन्नका वोना, बिना प्यासे मनुष्यके लिये जल देना, चिकनी वस्तु पर चित्रका खींचना, अभव्यको धर्मकी रुचि कहना, काले कपड़े पर केसरिया रंग और प्रतीति रहित पुरुषके लिये मंत्र प्रयोग करना, कार्यकारी नहीं, उसी प्रकार जिसको आत्मामें प्रेम नहीं उस मनुष्यको आत्माके ध्यान करनेका उपदेश भी कार्यकारी नहीं-सब व्यर्थ है । भावार्थ:-जिस प्रकार अंधा नाच नहीं देख सकता, अज्ञानी तप नहीं कर सकता, आयुका अंत हो जाने पर दवा काम नहीं दे सकती, बहिरा गीत नहीं सुन सकता, ऊसर भूमिमें अन्न नहीं उग सकता, बिना गासे मनुष्यके लिये जल फल नहीं दे सकता, चिकने पदार्थ पर तस्वीर नहीं खिच सकती, अभव्यको धर्म रुचि नहीं हो सकती, काले कपड़े पर केसरिया रंग नहीं चढ़ सकता और अविश्वासी मनुष्यके लिये मंत्र काम नहीं दे सकता । उसीप्रकार आत्मामें प्रेम न करनेवाला मनुष्य भी आत्मध्यानके उपदेशसे कुछ लाभ नहीं उठा सकता, इसलिये जीवोंको चाहिये कि वे अवश्य आत्मामें प्रेम करें ।। १७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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