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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा०७५
कि योग और कषाय मिलकर लेश्याभाव रूप होते हैं और लेश्याका कार्य केवल योग या वेवल कषायके कार्यसे भिन्न है-वह है संसारकी वृद्धि । अतः लेश्या पृथक् मानी गयी है। दूसरी शंका यह हो सकती है कि आगममें ग्यारहवें, बारहवें, और तेरहवें गुणस्थानों में शुक्ललेश्या कही है, किन्तु उनमें कषायका उदय नहीं है । कषायका उदय दसवें गुणस्थान तक ही होता है। तब वहाँ लेश्यामें औदयिकभावपना कैसे घटित होगा! इसका समाधान यह है कि एक नयका नाम पूर्वभाव प्रज्ञापन है। वह नय पुरानी बीती बातोंकी विवक्षासे वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन करता है। अतः इस नयकी अपेक्षासे जो मन, वचन,कायकी प्रवृत्ति कषायके उदयसे अनुरंजित थी,वही ग्यारहवें आदि गुणस्थानोंमें भी है। इस तरह उपचारसे उसे औदयिकी कहते हैं ( सर्वार्थसिद्धि २१६) । इस तरह कषायके उदयको लेकर लेश्याको औदयिक कहा गया है। कषायके उदयके छह प्रकार हैं-तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम । कषायके उदयके इन छह प्रकारोंके क्रमसे लेश्या भी छह बतलायी है-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या । इस तरह औदयिक भावके इक्कीस भेद हैं। कर्मके उपशमसे होनेवाले भावको औपशमिक भाव कहते है। कर्मको उदयके अयोग्य कर देनेका नाम उपशम है-जैसे कीचड़ मिश्रित पानीमें निर्मली डाल देनेसे कीचड़ नीचे बैठ जाता है और ऊपर निर्मल जल रहता है। औपशमिक भाव दो है-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीयकर्म, इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । भव्यजीवको सबसे प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व ही होता है। और अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है । मोहनीय कर्मकी शेष इक्कीस प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है। इस तरह यह दो भाव औपशमिक हैं। यहाँ इतना विशेष जानना कि उपशम सम्यक्त्वके दो भेद है-प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व । अनादि मिथ्या दृष्टिके पांच और सादि मिथ्यादृष्टिके सात प्रकृतियोंके उपशमसे जो सम्यक्त्व होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व चौथेसे सातवें गुणस्थान तक ही होता है । सातवें गुणस्थानमें क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिजीव जब उपशमणि चढ़ने के अभिमुख होता है तो अनन्तानुबन्धी क्रोध,मान, माया, लोभका विसंयोजन करके दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका उपशम करता है।उससे जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है-वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है। वर्तमान निषेकमें सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदयाभावी क्षय और आगामी कालमें उदय आने वाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती स्पर्द्धकोंका उदय, ऐसी कर्मको अवस्थाको क्षयोपशम कहते हैं और उससे होने वाले भावोंको क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । क्षायोपशमिक भाव १८ है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, दान, लाभ, भोग उपभोग, वीर्य, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम। ये सभी भाव अपने अपने आवारक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय कर्मके क्षयोपशमसे होते हैं। ऊपर जो क्षयोपशमका लक्षण कहा गया है,सर्वत्र वही पाया जाता है किन्तु आचार्य वीरसेनने श्रीधवलामें उसका निषेध किया है। उनके अनुसार-दर्शनमोहनीय कर्मकी देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाला सम्यक्त्व भाव क्षायोपशमिक है । सम्यक्त्व प्रकृतिके स्पर्धकोंकी क्षय संज्ञा है, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शनको रोकनेकी शक्तिका अभाव है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके उदयके अभावको उपशम कहते है। इस प्रकार इन क्षय और उपशमसे उत्पन्न होनेसे सम्यक्त्व भावको क्षायोपशमिक कहते हैं-[षट् खण्डा०, पु० ५, पृ० ११०-१११ ] । कर्मों के क्षयसे प्रकट होने वाले भावको क्षायिक कहते हैं । क्षायिक भावके नौ भेद है-केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र । ज्ञानावरण कर्मके अत्यन्त क्षयसे प्रकट होनेवाला केवलज्ञान क्षायिक है। इसी तरह दर्शनावरण कर्मके अत्यन्त क्षयसे प्रकट होने वाला केवलदर्शन क्षायिक है । दानान्तराय कर्मके अत्यन्त क्षयसे प्रकट हुआ अभयदान क्षायिक है। उसी भावके कारण केवलज्ञानीके द्वारा अनन्त प्राणियोंका उपकार होता है।
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