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________________ -७५ ] नयचक्र कर्मजक्षायिकस्वाभाविकस्वभावानां संख्यां स्वरूपं चाह -- चारिवि कम्' जणिया ऍक्को खाईय इयर परिणामी । भावा जीवे भणिया णयेण सव्वेवि णायव्वा ॥७४ || 'ओदयिओ उवसमिओ खओवसमिओ वि ताण खलु भेओ । तेसि खयादुखाई परिणामी उहह्यपरिचत्तो ॥ ७५ ॥ आगे जीवके कर्मजन्य, क्षायिक और स्वाभाविक भावोंकी संख्या और स्वरूप बतलाते हैंजीव में चार भाव कर्मजन्य कहे हैं, एक भाव क्षायिक है, एक पारिणामिक है । ये सभी भाव नयके द्वारा जानने चाहिए ||१४|| औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक ये उन भावोंके भेद हैं । कर्मो से क्षायिकभाव होता है और जो भाव न तो कर्मजन्य है और न कर्मोंके क्षयसे होता है वह पारिणामिक है || ७५|| विशेषार्थ-जीवके पाँच भाव बतलाये हैं-- औदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक । इनमें से प्रारम्भके चार भाव कर्मजन्य हैं - कर्मोंके निमित्तसे होते हैं । संसारी जीव अनादिकालसे कर्मोंसे बद्ध हैं । अतः संसार अवस्थामें रहते हुए उसके कर्मोंके निमित्तसे होने वाले भाव होते हैं- ऐसे भाव केवल चार हैं । उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये चारों कर्मकी अवस्थाएँ हैं । कर्मोंके फलदानको उदय कहते हैं । उदय के निमित्तसे जो भाव होते हैं उन्हें औदयिक कहते हैं । औदयिक भाव इक्कीस हैं-४ गति, ४ कषाय, ३ तीन लिंग, १ मिथ्यादर्शन, १ अज्ञान, १ असंयम, १ असिद्धत्व, ६ लेश्या । गतिनाम कर्मके उदयसे गति होती है। गति चार हैं-नरक गति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । यह गति नामकर्म जीवविपाकी है अतः नरक गति नामकर्मके उदयसे नारक भाव होता है, तिर्यञ्च गतिनाम कर्म के उदयसे तिर्यञ्चभाव होता है । इसी तरह मनुष्य गति नाम कर्मके उदयसे मानुष भाव और देवगति नाम कर्म के उदयसे देवसम्बन्धी भाव होता है। आशय यह है कि प्रत्येक गति में उस गतिके अनुसार जीवोंके भाव भी भिन्न-भिन्न होते हैं । चूँकि उन भावोंके होने में गतिनाम कर्मका उदय निमित्त पड़ता है, इसलिए उन्हें औदयिक कहते हैं । मोहनीय कर्मके मूल भेद दो हैं--दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । चारित्र मोहनीयका भेद कषाय वेदनीय । कषाय चार हैं— क्रोध, मान, माया, लोभ । क्रोधकषायके उदयमें क्रोध रूप भाव होता है । इसी तरह मान माया और लोभ कषायके उदयमें मान, माया और लोभ रूप भाव होते हैं । अतः कपाय भी औदयिक भाव है । तत्त्वार्थश्रद्धान रूप आत्मभावका नाम सम्यग्दर्शन है और सम्यग्दर्शन की विकाररूप अवस्थाका नाम मिथ्यादर्शन है । उसमें निमित्त मिथ्यादर्शन कर्मका उदय है । अतः मिथ्यादर्शन कर्म के उदयसे होनेवाले तत्त्वार्थ अश्रद्धान रूप परिणाम को मिथ्यादर्शन कहते हैं, अतः मिथ्यादर्शन भी औदयिक है । ज्ञानावरण कर्मके उदयसे जो पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता वह अज्ञान भी औदयिक है । जब तक जीवको केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती, तब तक वह अज्ञानी माना जाता है और तभी तक उसके ज्ञानावरण कर्मका उदय रहता है, अतः अज्ञान औदयिक भाव है | चारित्र मोहनीय कर्मके सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयसे असंयम रूप भाव होता है, अतः असंयम भी औदयिक भाव है । जब तक किसी भी कर्मका उदय रहता है, तब तक सिद्धत्वभाव नहीं होता / अतः असिद्धत्व भी औदयिक भाव है । लेश्या के दो प्रकार हैंद्रव्यलेश्या और भावलेश्या । जीवके भावोंमें भावलेश्या ही ली गयी है । कषायके उदयसे अनुरक्त मन वचन कायकी प्रवृत्तिको भावलेश्या कहते हैं । चूंकि लेश्यामें कषायका उदय रहता है, अतः लेश्या भी यिकी है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि यदि कषायके उदयके कारण लेश्याको औदयिकी कहते हैं तो कषायका उदय तो कषायमें आ जाता है, अतः कषायसे भिन्न लेश्या क्यों कही ? इसका समाधान यह है ४१ १. कम्मज - ज० । २. 'औपशमिकक्षायिको भावी मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च' । तत्त्वार्थ सू० २।१ । ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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