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नयचक्र हेयोपादेयत्वं स्वभावानां दर्शयति
हेया कम्मे जणिया भावा खयजा हु मुणहु फलरूवा। झेओ ताणं भणिओ परमसहावो हु जीवस्से ॥७६॥
लाभान्तरायका अत्यन्त क्षय होनेसे भोजन न करनेवाले केवली भगवानके शरीरको बल देने वाले जो परम शुभ सूक्ष्म नोकर्म पुद्गल प्रति समय केवलीके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं.जिनसे केवलीका औदारिक शरीर बिना भोजनके कुछ कम एक पूर्वकोटी वर्षतक बना रहता है, यह क्षायिक लाभका परिणाम है। भोगान्तरायका अत्यन्त क्षय होनेसे क्षायिक भोग होता है। उसीके कारण सुगन्धित पुष्पोंकी वर्षा, मन्द सुगन्ध पवनका बहना आदि होता है । उपभोगान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षयसे क्षायिक उपभोग होता है। उसीसे सिंहासन, तीनछत्र, भामण्डल आदि विभूति प्रकट होती है। वीर्यान्तरायकमके अत्यन्त क्षयसे क्षायिक वीर्य होता है। मोहनीय कर्मको उक्त सात प्रकृतियों के क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है और समस्त मोहनीय कर्मके क्षयसे क्षायिक चारित्र होता है। ये चारों ही भाव कर्मजन्य हैं, क्योंकि कर्मके ही उदयः उपशम, क्षयोपशम और क्षयरूप अवस्थाका निमित्त पाकर प्रकट होते हैं । पांचवां पारिणामिक भाव ही ऐसा है जिसमें कर्म निमित्त नहीं है। वह स्वाभाविक है । उसके मुख्य भेद तीन ही है-जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व । जीवत्व नाम चैतन्य भावका है। वह जीवका स्वाभाविक भाव होनेसे पारिणामिक है। जिस जीवमें सम्यग्दर्शन आदि परिणामोंके होने की योग्यता है वह भव्य है और जिसमें वैसी योग्यता नहीं है वह अभव्य है। ये दोनों भाव भी स्वाभाविक है । अतः पारिणामिक हैं।
आगे उक्त स्वभावोंमें उपादेय और हेयपना बतलाते हैं
कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले भाव हेय हैं-छोड़ने योग्य हैं। कर्मों के क्षयसे होनेवाले भाव फल रूप जानने चाहिए। उन सब भावों में से जीवका परम स्वभाव ही ध्यान करनेके योग्य है ॥७६।।
विशेषार्थ-उक्त भावोंमें औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव कर्मजन्य है। क्षायिक भाव केवलज्ञानादिरूप होनेसे यद्यपि वास्तवमें शुद्ध,बुद्ध जीवका स्वभाव है,तथापि वह कमके क्षयसे उत्पन्न होता है, इसलिए उसे उपचारसे कर्मजनित कहा है। किन्तु शुद्ध पारिणामिक भाव कर्म निरपेक्ष ही है । एक प्राचीन गाथामें (जयधवला, भा. १, पृ. ६० में उद्धृत) कहा है कि अध्यात्ममें जो भाव बन्धके कारण हैं और जो भाव मोक्षके कारण हैं तथा जो न बन्धके कारण हैं और न मोक्षके कारण हैं उन सबको भी जानना चाहिए। औदयिकभाव बन्धके कारण हैं; औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्षके कारण हैं । किन्तु पारिणामिक भाव न तो बन्धका कारण है और न मोक्ष का कारण है।
इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-औपशमिक, क्षायोपशमिक. क्षायिक और औदयिक ये चार भाव तो पर्यायरूप हैं और शुद्धपारिणामिक भाव द्रव्य रूप है। तथा परस्पर सापेक्ष उन द्रव्य और पर्यायको आत्मा नामक पदार्थ कहते हैं। पारिणामिक भाव तीन है-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । इन तीनोंमें शक्तिरूप शद्धजीवत्व नामक पारिणामिक भाव शुद्ध द्रव्याथिकनयके आश्रित होनेसे निरावरण है। अतः उसे शद्धपारिणामिक भाव कहते हैं। वह बन्ध मोक्ष पर्यायरूप परिणमनसे रहित है। किन्तु दस प्राणरूप जीवत्व और भव्यत्व और अभव्यत्व भाव हैं।वे पर्यायाधिकनयके आश्रित होनेसे अशुद्धपारिणामिक भाव कहे जाते हैं। इनको अशुद्ध कहनेका कारण यह है कि शुद्धनयसे संसारी जीवोंके और सिद्धोंके तो सदैव दस प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व भावका अभाव है । इन तीनों पारिणामिक भावोंमें-से भव्यत्वरूप पारिणामिक भावको ढाँकनेवाला मोहनीय कर्म है। जब काललब्धि आदिका निमित्त पाकर भव्यत्व शक्ति प्रकट होती है. तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभाव रूप निज आत्मद्रव्यके सम्यग् श्रद्धान ज्ञान और आचरणरूप पर्यायसे
१. 'ततो ज्ञायते शुद्ध पारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति । कस्मात् । ध्यानस्य विनश्वरत्वात् ।' समयप्राभृत गा० ३२०, जयसेनटीका ।
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