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________________ ३६ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा०६९ [सर्वथैकान्तेन सद्रूपस्य न नियतार्थव्यवस्था संकरादिदोषत्वात् तथासद्रूपस्य सकलशून्यताप्रसंगात्। नित्यस्येकस्वरूपत्वात् एकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्य स्वभाव यद्यपि परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं, किन्तु नयदृष्टि से विरोधी नहीं है। एक ही द्रव्य स्वरूपको अपेक्षा अस्तिस्वभाव है तो पररूपको अपेक्षा नास्तिस्वभाव है। द्रव्य दृष्टि से नित्य है तो पर्याय दृष्टि से अनित्य है। गुण गुणी आदि संज्ञा भेदसे भेदस्वभाव है तो अखण्ड होनेसे अभेदस्वभाव है। इसी प्रकार अन्य भावोंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए। किन्तु विशेष स्वभावोंमें चैतन्य स्वभाव भी है और अचेतन स्वभाव भी है। मूर्त-अमर्तस्वभाव भी हैं, एक प्रदेश अनेकप्रदेश स्वभाव भी है और ये सभी स्वभाव जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यमें बतलाये हैं। अर्थात् जीव अचेतन स्वभाव भी है और पुद्गल चेतन स्वभाव भी है। जीव मूर्तस्वभाव भी है और पुद्गल अमूर्तस्वभाव भी है। यह बात अवश्य ही श्रोताको खटक सकती है, क्योंकि जीवका विशेष गुण चेतना है और पुद्गलका विशेष गुण अचेतनपना है। ये दोनों विशेष स्वभाव एक ही द्रव्यमें कैसे रह सकते हैं, यह शंका होना स्वाभाविक है। इसीके समाधानके लिए ग्रन्यकारने गाथामें 'नयदृष्टिसे' लिखा है । नयदृष्टि से जीव भी अचेतन मर्त और एक प्रदेश स्वभाव होता है और पुद्गलद्रव्य चेतन, अमूर्त और अनेक प्रदेश स्वभाव होता है। व्यवहारनयके भेदोंमें एक असद्भूत व्यवहारनय भी है। अन्य द्रव्यके धर्मका अन्य द्रव्यमें आरोपण करनेको असद्भत व्यवहारनय कहते है। जीव और पुदगल कर्म-नोकर्म अनादिकालसे दूध और पानीकी तरह परस्पर में मिले हए हैं। इस निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धको लेकर असद्भत व्यवहारनयसे पुद्गलके अचेतनत्व और मतत्व धर्मका आरोप चेतनमें किया जाता है और जीवके चेतनत्व और अमूर्तत्व धर्मका आरोप पुद्गल में किया जाता है । अतः असद्भुत व्यवहारनयसे जीव भी अचेतन स्वभाव और मूर्तस्वभाव है तथा पुद्गल भी चेतन स्वभाव और अमूर्त स्वभाव है। पुद्गलका एक परमाणु एक प्रदेश, स्वभाव और शुद्ध स्वभाव वाला है, किन्तु अन्य परमाणओंके साथ मिलकर स्कन्धरूप परिणत होने पर अनेक प्रदेश स्वभाव और अशुद्ध स्वभाववाला है। इसी तरह जीव स्वभावसे अनेक प्रदेश स्वभाव और शुद्ध स्वभाववाला है। किन्तु कर्मबन्धके कारण अशुद्ध स्वभाववाला है। इस प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्य में नयदृष्टिसे सभी सामान्य और विशेष स्वभाव रहते हैं। किन्तु धर्मद्रव्य अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य में चेतन स्वभाव, मर्तस्वभाव, विभाव स्वभाव, एकप्रदेश स्वभाव और अशुद्ध स्वभाव ये पाँच स्वभाव उपचारसे भी नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि ये द्रव्य किसी अन्य द्रव्यसे न तो बन्धको प्राप्त होते हैं और न इनमें संसारी जीवकी तरह संकोच विस्तार होता है। इसलिए इन तीनोंमें सोलह-सोलह स्वभाव ही होते हैं। कालद्रव्यमें बहु प्रदेश स्वभाव नहीं है, क्योंकि कालके अणु रत्नोंको राशिकी तरह पृथक्-पृथक् स्थित है, अतः कालद्रव्य एकप्रदेश स्वभाव है। किन्तु कालद्रव्यमें उपचरित स्वभाव नहीं माना जाता इसलिए उसमें पन्द्रह स्वभाव ही होते हैं। __ आगे एकान्तवादमें दोष बतलाकर अनेकान्तवादको व्यवस्था करते हैं-वस्तुको सर्वथा एकान्तसे सद्रप माननेपर नियत अर्थव्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि एक वस्तु अन्य वस्तु स्वरूप हो जानेसे संकर आदि दोषोंका प्रसंग आता है। जब वस्तु सर्वथा सत् है तो जैसे वह स्वरूपको अपेक्षा सत् है, वैसे ही पर रूपकी अपेक्षा भी सत् हो जायेगी और तब घट घट ही है पट नहीं है तथा पट पट ही है,घट नहीं है. इस प्रकारको प्रतिनियत अर्थव्यवस्था नहीं बन सकेगी, क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वरूपकी तरह पररूपसे भी सत माननी होगी उसके माने बिना सर्वथा सत्पना नहीं बन सकता। तथा वस्तुको सर्वथा असत मानने पर सकल शून्यताका प्रसंग आता है ,क्योंकि वैसा माननेपर संसारमें कुछ भी सत् नहीं हो सकता । वस्तुको १. [ ] एतदन्तर्गतः पाठः 'आ' प्रतौ नास्ति । क प्रती 'नानास्वभावसंयुक्त' इत्यादि श्लोकद्वयं तु मूलपाठे लिखितमस्ति, अन्यच्च सर्व टिप्पणरूपेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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