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________________ -६९ ] नयचक्र ३७ भावः । अनित्यपक्षेऽपि निरन्वयत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः। एकरूपस्यकान्तेन विशेषाभावः सर्वथैकरूपत्वात । विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः। अनेकपक्षेऽपि तथा द्रव्याभावो निराधारत्वात् । भेदपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः। अभेदपक्षेऽपि सर्वथैकरूपत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । भव्यस्यैकान्तेन परपरिणत्या संकरादिदोषसंभवः । अभाव्यस्यापि तथा शून्यताप्रसंगः स्वरूपेणाप्यभवनात् । स्वभावरूपस्यैकान्तेन संसाराभावः । विभावपक्षेऽपि तथा मोक्षस्यासंभवः । चैतन्यमेवेत्युक्ते सर्वेषां शुद्धज्ञानचैतन्यावाप्तिर्भवेत् । तथा अचैतन्यपक्षेऽपि सकलचैतन्योच्छेदः स्यात् । मूर्तस्यैकान्तेनात्मनो न मोक्षावाप्तिः स्यात् । अमूर्तस्यापि आत्मनस्तथा संसारविलोपः स्यात् । एकप्रदेशस्यैकान्तेनात्मनोऽनेकक्रियाकारित्वहानिः स्यात् । अनेकप्रदेशत्वेऽपि तथा तस्य नार्थक्रियाकारित्वं स्वस्वभावशून्यताप्रसंगात् । शुद्धस्यैकान्तेनात्मनो न कर्मकलङ्कावलेपः सर्वथा निरञ्जनत्वात् । अशुद्धस्यापि तथात्मनो न कदाचिदपि शुद्धबोधप्रसंगः स्यातन्मयत्वात् । उपचरितै सर्वथा नित्य मानने पर उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता,अतः उसे सर्वथा एकरूप मानना होगा। सर्वथा एकरूप वस्तु कुछ भी कार्य नहीं कर सकती । अतः उसमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती। अर्थक्रिया ही सत्का लक्षण है। अतः अक्रियाके अभावमें द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा। सर्वथा अनित्य (क्षणिक ) मानने पर भी वस्तु उत्पन्न होते ही सर्वथा नष्ट हो जायेगी तब वह अर्थक्रियाकारी कैसे हो सकती है और अर्थक्रियाकारित्वके अभावमें द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा। वस्तुको सर्वथा एकरूप माननेपर विशेषका अभाव हो जायेगा। और विशेषके अभावमें सामान्यका भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि विशेषके बिना अकेला सामान्य नहीं रहता। वस्तुको सर्वथा अनेक माननेपर द्रव्यका अभाव हो जायेगा। तथा द्रव्यके अभावमें आधार के बिना अनेक रूप कहाँ रहेंगीअतः उनका भी अभाव हो जायेगा। सर्वथा भेद पक्षमें भी गुण गुणीसे सर्वथा भिन्न होनेपर निराधार हो जायेंगे और निराधार होनेसे उनमें अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी, वे कुछ कार्य नहीं कर सकेंगे। और ऐसी स्थितिमें गुणी द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा। सर्वथा अभेद पक्षमें भी नित्यपक्षकी तरह वस्तु सर्वथा एकरूप होनेसे अर्थक्रिया नहीं कर सकती और अर्थक्रियाके अभाव में द्रव्यका अभाव सुनिश्चित है। यदि एकान्तसे वस्तुको भव्यस्वभाव माना जायेगा तो उसके पररूप परिणमन करनेसे संकर आदि दोष सम्भव हैं। और सर्वथा अभव्य स्वभाव माननेपर वस्तुको शून्यताका प्रसंग आता है, क्योंकि वस्तु स्वरूपसे भी परिणम नहीं कर सकेगी। सर्वथा स्वभाव रूप माननेपर जीव और पुद्गलका कभी मेल ही नहीं होगा और तब संसारका ही अभाव हो जायेगा क्योंकि संसार तो स्वभावदशामें नहीं होता,विभावदशा में होता है। इसी तरह सर्वथा विभावरूप माननेपर कभी किसी जीवका संसारके बन्धनसे छुटकारा नहीं होगा। अतः मोक्षका अभाव हो जायेगा। यदि सबको केवल चैतन्य स्वरूप ही माना जायेगा तो सभी शुद्ध ज्ञान चैतन्यमय हो जायेंगे। इसी तरह केवल अचैतन्य स्वभावको ही स्वीकार करनेपर समस्त चैतन्य स्वभावका उच्छेद हो जायेगा। यदि आत्मा को एकान्तरूपसे मूर्त माना जायेगा तो उसे कभी मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकेगी। इसी तरह आत्माको सर्वथा अमूर्त माननेपर संसारका हो लोप हो जायेगा,क्योंकि सर्वथा अमर्त आत्मा कर्मबन्धनसे बद्ध नहीं हो सकता और कर्मबन्धनसे बद्ध हए बिना संसारका प्रवर्तन नहीं हो सकता। यदि आत्माको सर्वथा एकप्रदेशी माना जायेगा तो वह अनेक प्रकारकी क्रियाएँ नहीं कर सकेगा। इसी तरह सर्वथा अनेकप्रदेशो माननेपर भी आत्मा अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता क्योंकि स्वभावशून्यताका प्रसंग आता है। आत्माको एकान्तसे शद्ध माननेपर उसपर कर्ममल रूपी कलंकका लेप नहीं चढ़ सकता; क्योंकि वह सर्वथा निर्मल है। यदि सर्वथा निर्मल आत्माके भी कर्ममल रूपी कलंकका अवलेप सम्भव हो तो एक तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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