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नयचक्र
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प्रत्येक द्रव्यसमावसंख्यामाह
इगवीसं तु सहावा दोण्हं तिण्हं तु सोलसा भणिया। पंचदसा पुण काले दवसहाया मुणेयव्वा ॥६८॥ इगेवीसं तु सहावा जीने तह जाण पॉग्गले णयदो!
इयराणं संभवदो णायव्वा जाणवंतेहिं ॥६९॥ आगे गुण और पर्यायोंको स्वभावपना तथा जो स्वभाव नहीं कहे गये हैं उनके अन्तर्भावको बतलाते हैं---
चूँकि गुण, पर्याय और स्वभाव द्रव्यरूप ही होते हैं अतः अन्य गुण आदिका उन्हीं में अन्तर्भाव जानना चाहिए ॥६७॥
विशेषार्थ-आचार्य देवसेनने 'आलापपद्धति' को रचना करते हुए प्रारम्भमें ही यह प्रतिज्ञा की है कि मैं गुण, पर्याय और स्वभावोंका विस्तार कहूँगा। तदनुसार उन्होंने इन तीनोंका कथन किया है । ये तीनों द्रव्यरूप ही है। द्रव्यकी ही अवस्था विशेषोंको गुण, पर्याय और स्वभाव कहते हैं। किन्तु प्रश्न यह होता है कि गुण और पर्यायरो अतिरिक्त स्वभाव क्या है? गण और पर्याय ही तो द्रव्यके स्वभाव हैं । गुणोंको तो द्रव्यका विधाता कहा है। विशेष गुणोंके ही कारण एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे भिन्न होता है। अतः उन्हें द्रव्यका विधाता कहा जाता है। यदि गुण न हों तो द्रव्यों में संकर हो जाये। जैसे जीवद्रव्य ज्ञानादि गुणोंके कारण पुद्गल आदि द्रव्योंसे भिन्न माना जाता है और पुदगल आदि द्रव्य रूप आदि गुणों के कारण जीवद्रव्यसे भिन्न माने जाते हैं। यदि इन द्रव्योंमें ये विशेष गण न हों तो जीव पुदगल आदि सब द्रव्यों में कोई विशेषता न रहनेसे सब एकमेक हो जायें। अतः सामान्य रूपसे ज्ञानादि जीवके गुण कहे जाते हैं और रूपादि पुद्गलोंके गुण कहे जाते है । गुणों के विकारको पर्याय कहते हैं। जैसे घटज्ञान, पटज्ञान ज्ञानगुणकी पर्याय है । अतः पर्यायका गुण और स्वभावसे भेद तो स्पष्ट है किन्तु गुण और स्वभावमें क्या भेद है,यह स्पष्ट नहीं है। आलापपद्धति में लिखा है--स्वभाव गुण नहीं होते, किन्तु गुण स्वभाव होते हैं। यह बात गुणों और स्वभावोंके स्वरूपको दृष्टिमें रखकर जानी जा सकती है। जैसे आत्माके ज्ञान, दर्शन, सुख आदि गुणोंको आत्माका स्वभाव कहा जा सकता है, किन्तु नास्ति, नित्य, अनित्य आदि स्वभावोंको उसका गुण नहीं कहा जा सकता। आत्मामें स्वभाव अपने प्रतिपक्षी धर्मके साथ रहता है जैसे आत्मामें अस्ति स्वभाव भी है और नास्तिस्वभाव भी है, एक स्वभाव भी है और अनेकस्वभाव भी है। किन्तु ज्ञानगणका प्रतिपक्षी अज्ञानगुण आत्मामें नहीं है। यही गुण और स्वभावमें अन्तर है। स्वभाव नष्ट भी हो जाते है। जैसे मुक्तावस्थामें औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, आदि भाव नष्ट हो जाते हैं यहाँ तक कि भव्यत्व नामक पारिणामिक भाव भी नष्ट हो जाता है, किन्तु गुण नष्ट नहीं होते । यह भी स्वभाव और गुणमें अन्तर है ।
प्रत्येक द्रव्यमें स्वभावको संख्या बतलाते हैं -- दो द्रव्यों में से प्रत्येकमें इक्कीस इक्कीस स्वभाव होते हैं। तीन द्रव्योंमें सोलह-सोलह
होते हैं। कालव्य में पन्द्रह स्वभाव जानने चाहिए। जीव और पदगल द्रव्यमें इक्कीस स्वभाव जानो। शेष द्रव्योंमें नय-दृष्टिसे ज्ञानियोंको यथासम्भव स्वभाव जानने चाहिए ॥६८-६९।।
विशेषार्थ-पीछे द्रव्योंके ग्यारह सामान्यस्वभाव और दस विशेष स्वभाव बतलाये हैं। दोनों मिलकर इक्कीस स्वभाव होते हैं। जीव और पुद्गल द्रव्यमें इक्कोस-इक्कीस स्वभाव होते हैं। अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद, भव्य-अभव्य और परमस्वभाव ये ग्यारह सामान्य स्वभाव है । ये
१. ६८-६९ गाथाद्वयं आ० मु० प्रती च व्यत्ययेन वर्तते । २. 'एकविंशतिभावाः स्युर्जीवपुदगलयोर्मताः । धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः।' -आलाप० ।
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