SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० ६५ कम्मक्खयदो सुद्धो मिस्सो पुण होइ इयरजो भावो। जं विय दव्वसहावं उवयारं तं पि ववहारं ॥६५॥ स्वभावानां यथा निरर्थकत्वं सार्थकत्वं च तथा दर्शयति णिरवेक्खे एयंते संकरआईहिं दूसिया भावा। णो णियकज्जे अरिहा विवरीए ते वि खलु अरिहा ॥६६॥ गुणपर्याययोः स्वभावत्वमनुक्तस्वभावानामन्तवं च दर्शयति गुणपज्जायसहावा दव्वत्तमुवगया हु ते जम्हा। पिच्छह अंतरभावं अण्णगुणाईण भावाणं ॥६७॥ कर्मोंके क्षयसे प्रकट हुए स्वभावको शुद्ध स्वभाव कहते हैं। और कर्मों के संयोगसे उत्पन्न हुए भावको अशुद्ध स्वभाव कहते हैं। व्यवहार नयसे जो द्रव्यका स्वभाव होती है उसे उपचरित कहा जाता है ॥६५॥ आगे बतलाते हैं कि स्वभाव कैसे निरर्थक और सार्थक होते हैं निरपेक्ष एकान्तवादमें भाव संकर आदि दोषोंसे दूषित होनेसे अपना-अपना कार्य करने में असमर्थ होते हैं,किन्तु विपरीत स्थितिमें अर्थात् सापेक्ष एकान्तवादमें या अनेकान्तवादमें वे भाव अपना-अपना कार्य करने में समर्थ होते हैं ।।६६।। विशेषार्थ-सामान्य स्वभावोंका कथन करते हए एक ही द्रव्यमें अस्तित्व स्वभाव-नास्तित्व स्वभाव, नित्यत्व स्वभाव-अनित्यत्व स्वभाव, एकत्व स्वभाव-अनेकत्व स्वभाव जैसे परस्परमें विरोधी प्रतीत होनेवाले स्वभाव बतलाये है। निरपेक्ष एकान्तवादमें एक हो वस्तूमें अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व जैसे स्वभाव बन ही नहीं सकते, क्योंकि बिना अपेक्षाके जो अस्ति स्वभाव है वही नास्तिस्वभाव कैसे हो सकता है और यदि होगा तो अस्तिस्वभाव नास्तिस्वभाव रूप हो जायेगा और नास्तिस्वभाव अस्तिस्वभाव रूप हो जायेगा,क्योंकि निरपेक्ष एकान्तवादमें अपेक्षा भेद तो सम्भव नहीं है। यह तो सापेक्ष एकान्तवादमें या अनेकान्तवादमें ही सम्भव है कि वस्तु अपने स्वरूपकी अपेक्षा अस्तिस्वभाव है और परस्वरूपकी अपेक्षा नास्तिस्वभाव है, तथा द्रव्यरूपसे नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य है। और तभी ये स्वभाव कार्यकारी भी होते हैं क्योंकि उस स्थितिमें इनके द्वारा वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी प्रतीति होती है। और फिर प्रतीतिके अनुसार ही वस्तुस्वरूपका यथार्थ निर्णय करके उनके द्वारा लोकव्यवहार प्रचलित होता है। किन्तु निरपेक्ष एकान्तवादमें यह संभव नहीं है। उदाहरणके लिए एक व्यक्ति पिता-पुत्र दोनों होता है। अपने पिताकी अपेक्षा वह पुत्र है और अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है। इस अपेक्षा भेदको यदि न मान करके एक व्यक्तिको पिता और पुत्र माना जाये तो बड़ी गड़बड़ी उपस्थित हो-जिसका वह पिता है उसका पुत्र भी माना जा सकता है और जिसका वह पत्र है उसका पिता भी माना जा सकता है, क्योंकि निरपेक्ष एकान्तवादमें अपेक्षाभेद तो सम्भव नहीं है। किन्तु सापेक्ष एकान्तवादमें जब उसका पुत्र उसे पिता कहकर पुकारता है तो वह उसका पिता होते हुए भी उसी काल में अपने पिताके द्वारा पुत्र पुकारे जानेपर उसका पुत्र भी होता है। इस तरह उसका पितृत्व और पुत्रत्व धर्म सापेक्ष अवस्था में ही कार्यकारी है निरपेक्ष अवस्थामें नहीं। निरपेक्ष अवस्थामें तो वह किसीका भी पुत्र और किसी का भी पिता कहला सकता है। अथवा न वह पिता ही कहा जा सकता है और न पुत्र ही कहा जा सकता है; क्योंकि वे दोनों धर्म सापेक्ष है निरपेक्ष नहीं हैं । इसी प्रकार अन्य स्वभावों के सम्बन्धमें भी जानना । १. गणाइ आईण अ. आ० क० ख० ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy