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________________ नयचक्र 'भव्वगुणादो भव्वा तविवरीएण होति विवरीया। सब्भावेण सहावा सामण्णसहावदो सव्वे ॥६२॥ अणुहवभावो चेयणमचेयणं होइ तस्स विवरीयं । रूवाइपिंड मुत्तं विवरीए ताण विवरीयं ॥३॥ खेतं पएसणाणं ऍक्काणेक्कं च दव्वदो णेयं । जहजादो रूवंतरगहणं जो सो हु विब्भावो ॥६४॥ गुणवाला है, वह अस्तिरूप है, नास्तिरूप है, नित्य है, अनित्य है, इस प्रकार कथन करनेसे वस्तु भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है। अत: वचनभेदसे प्रत्येक द्रव्य भिन्न स्वभाव है। किन्तु वास्तवमें उस द्रव्यके अन्दर कोई भेद नहीं है, वह तो एक अखण्ड वस्तुरूप है। अतः प्रत्येक द्रव्य अभिन्नसत्तावाला होनेसे अभिन्नस्वभाव है। इस प्रकार ये चारों भी द्रव्योंके सामान्य स्वभाव है। ये सभी द्रव्योंमें पाये जाते हैं। भव्यगुणके कारण सब द्रव्य भव्यस्वभाव हैं । अभव्यगुणके कारण सब द्रव्य अभव्य स्वभाव हैं। और अपने स्वभावसे परमस्वभाव रूप हैं। इस प्रकार ये सब द्रव्योंके सामान्य स्वभाव हैं ॥६२।। विशेषार्थ-यों तो भव्य और अभव्य स्वभाव केवल जीवद्रव्यमें माना गया है, किन्तु वहाँ एक ही जीवमें दोनों नहीं माने गये। इसलिए यहां उनसे प्रयोजन नहीं है। भव्यका शब्दार्थ है-होने के योग्य और अभव्यका अर्थ है-न होने के योग्य । प्रत्येक द्रव्यके भवनकी एक मर्यादा है। प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी मर्यादामें ही होता है ,उससे बाहर नहीं। चेतन चेतनरूपसे ही होने के योग्य है, अचेतन रूपसे नहीं। अचेतन द्रव्य अचेतन रूपसे हो होने के योग्य है, चेतनरूपसे ही नहीं। इस तरह प्रत्येक द्रव्य भव्यस्वभाव भी है और अभव्यस्वभाव भी है। तथा द्रव्योंमें एक पारिणामिक या स्वाभाविक परमस्वभाव होता है जो कि उनका मूलभूत स्वभाव होता है। इस प्रकार ये द्रव्यों के सामान्य स्वभाव होते हैं। अनुभवनरूप भावको चेतन कहते हैं और उससे विपरीत भावको अचेतन कहते हैं। रूप, रस आदि गुणोंके पिण्डको मूर्तिक कहते हैं और उससे विपरीतको अमूर्तिक कहते हैं ।।६३॥ विशेषार्थ-जो जानता देखता हो वह चेतन है और जिसमें जानने देखने या अनुभवन करनेकी शक्ति नहीं होती वह अचेतन है। अतः जानने, देखने या अनुभवन करने रूप भावको चेतनभाव कहते है और उससे विपरोत भावको अचेतन स्वभाव कहते हैं। इसी तरह जिसमें रूप, रस,गन्ध और स्पर्श गुण पाये जाते हैं वह मतिक है और जिसमें यह गुण नहीं पाये जाते वह अमर्तिक है। उन दोनोंके भावोंको मतिक स्वभाव और अमूर्तिक स्वभाव जानना चाहिए। क्षेत्रको प्रदेश कहते हैं। द्रव्यकी अपेक्षा एकप्रदेशित्व और बहुप्रदेशित्व स्वभाव जानना चाहिए। यथाजात स्वाभाविक रूपसे रूपान्तर होनेको विभाव कहते हैं ॥१४॥ विशेषार्थ-पुद्गलका एक परमाणु जितने क्षेत्रको रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं। इस मापके अनुसार जिस द्रव्यको जैसी अवगाहना होती है, तदनुसार उसका एकप्रदेशित्व या बहुप्रदेशित्व स्वभाव होता है। और एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके संयोगसे अन्य भाव रूप परिणमन करनेका नाम विभाव है। इस प्रकारके स्वभावको विभावस्वभाव कहते हैं । १. भवणगुणा दो क० । 'भाविकाले परस्वरूपाकारभवनाद् भव्यस्वभावः । कालत्रयेऽपि परस्वरूपाकाराभवनादभव्यस्वभाव: "पारिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभावः इति सामान्यस्वभावानां व्युत्पत्तिः ।'आलाप० । २. सहजादो मु० ज० । स्वस्वभावतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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