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________________ २४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०४६ दूषणान्तरमाह णिच्चे दवे' ण गमणदाणं पुण किह सुहासुहा किरिया। अह उवयारा' किरिया कह उवयारो हवे णिच्चे ॥४६॥ भेदपक्षे दूषणमाह णिच्चं गुणगुणिभेये दवाभावं अणंतियं अहवा । अणवत्था समवाए किह एयत्तं पसाहेदि ॥४७॥ होनेसे उसके असत्त्वका प्रसंग आयेगा। तथा अनेक कार्योंके करनेसे नित्यमें अनेक स्वभावोंके होनेका भी प्रसंग आता है। क्योंकि एक स्वभावसे अनेक कार्योंका करना तो युक्त नहीं है, ऐसा होने से सब कार्य एक रूप ही हो जायेंगे। यदि कहोगे कि सहकारी कारणोंकी विचित्रताके कारण कार्यों में वैचित्य पाया जाता है तो ऐसा कहना गी युक्त नहीं है। क्योंकि जिस सहकारीके होनेपर नित्यके स्वभावमें परिवर्तन नहीं होता वह सहकारी ही नहीं कहा जा सकता। और परिवर्तन होनेपर सर्वथा नित्यतामें बाधा आती है। अतः सर्वथा नित्य पक्षमें क्रम और युगपद अर्थक्रियाके सम्भव न होनेसे उसका असत्व ही सिद्ध होता है। नित्यपक्ष में अन्यदूषण भी बतलाते हैं नित्य द्रव्यमें गमन और स्थिति ही सम्भव नहीं है तब शुभ और अशुभ क्रियाका तो कहना ही क्या है ? यदि नित्य द्रव्यमें उपचारसे क्रिया मानते हैं तो नित्यमें उपचार कैसे हो सकता है।४६।। विशेषार्थ-नित्य द्रव्यमें यदि गमन रूप क्रिया मानी जाती है तो वह नित्य नहीं हो सकता; क्योंकि जब वह गमनको छोड़कर स्थिति करेगा या स्थितिको छोड़कर गमन करेगा तो अनित्य कहलायेगा क्योंकि पूर्वस्वभावको छोड़कर उत्तर स्वभावको धारण करनेवाला द्रव्य सर्वथा नित्य नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में सर्वथा नित्य आत्मा शुभ और अशुभ क्रियाका कर्ता कैसे हो सकता है। वह दान, पूजा, हिंसा,चोरी आदि क्रियाओंका यदि कर्ता है तो सर्वथा नित्य नहीं है क्योंकि सर्वथा नित्य वही हो सकता है जिसके स्वभावमें भी परिणमन नहीं होता। यदि कहोगे कि उपचारसे क्रिया मानेंगे तो वह उपचरित क्रिया वास्तविक है या अवास्तविक है। यदि वास्तविक है तो नित्य सर्वथा नित्य कसे कहा जायेगा। यदि क्रिया अवास्तविक है तो अवास्तविक क्रिया काल्पनिक ही हई,उससे नित्यमें वास्तविक शुभाशुभ क्रिया कैसे हो सकती है ? आगे भेदपक्ष में दूषण देते हैं--- गण और गणीमें सर्वथा भेद माननेपर द्रव्यका अभाव हो जायगा अथवा अनन्त द्रव्य हो जायेंगे । समवाय सम्बन्धसे गुण और गुणोमें अभेद माननेपर अनवस्था दोष आता है ऐसी स्थितिमें समवाय सम्बन्धसे कैसे अभेद हो सकता है।।४।। विशेषार्थ- गुणोंसे द्रव्यको और द्रव्यसे गुणोंको भिन्न माननेपर द्रव्यका अभाव और द्रव्यकी अनन्तताका दूषण आता है । इसका खुलासा इस प्रकार है-गुण वास्तवमें किसीके आश्रयसे रहते हैं और जिसके वे आश्रयसे रहते हैं वही द्रव्य है। यदि द्रव्य गुणोंसे भिन्न हो तो फिर भी गुण किसोके आश्रयसे ही. रहेंगे और जिसके आश्रित वे होंगे वही द्रव्य है। वह भी यदि गुणोंसे भिन्न हो तो फिर भी गुण किसीके आश्रित ही रहेंगे जिसके वे आश्रित होंगे वही द्रव्य है। वह भी यदि गुणोंसे भिन्न हो तो फिर भी गुण किसी आश्रयसे ही रहेंगे और जिसके वे आश्रित होंगे वही द्रव्य है। इस प्रकार द्रव्यकी अनन्तताका प्रसंग आता है। द्रव्य तो गुणोंका समुदाय हैं। यदि समुदायसे गुण भिन्न हैं तो फिर समुदाय कहाँ रहा? इस तरह गणोंको द्रव्यसे भिन्न माननेपर द्रव्यका अभाव होता है। प्रदेशोंका जुदा-जुदा होना भिन्नताका लक्षण १. दवे गमण अ० आ० ख० मु०। २. उवयारो आ० आ० क० ख०। ३. हवइ णिच्चो अ० । ४. णिच्चे गुणगुणिभेयं अ. क. । 'जदि हवदि दवमण्णं गुणदो य गुणा य दन्वदो अण्णे । दवाणंतियमधवा दव्वाभावं पकुव्वति ॥४४॥'--पञ्चास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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