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नयचक्र
नित्यपक्षे दूषणमाह
'जो णिच्चमेव मण्णदि तस्स ण किरिया हु अत्थकारितं ।
ण ह तं वत्थू भणियं जं रहियं अत्यकिरियाहिं ॥४५॥ अधिकं चोक्तं दूषणम्
"प्रत्यभिज्ञा पुनर्दानं भोगोपार्जितैनसाम् ।
बन्धमोक्षादिकं सर्व क्षणभङ्गाद् विरुध्यते ॥" विशेषार्थ-जैन बौद्धोंसे पूछते हैं कि जिस वासनाके कारण क्षणिक वस्तुमें 'यह वही है' इस प्रकारका ज्ञान होता है,वह वासना क्या है? क्या बौद्धों के माने हुए रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पांच स्कन्धोंसे वह भिन्न है ? यदि भिन्न और नित्य है तो 'सर्व क्षणिक है' इस आपके मतमें वासनासे ही दोष आता है क्योंकि वह नित्य है। और यदि वासना भी क्षणिक है,तो क्षणिक वासनासे 'यह वही है' इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानरूप विकल्पज्ञान कैसे हो सकता है ? अतः 'यह वही है, इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान वासनाजन्य नहीं है,किन्तु यथार्थ हैं और इसलिए उससे क्षणिकत्व बाधित है ॥
कहा भी है
"प्रत्यभिज्ञान, दानका फल, संचित पापोंका भोग और बन्ध,मोक्ष वगैरह सव क्षणभंगसे विरुद्ध हैं।" अर्थात् क्षणिकवाद माननेपर 'यह वही है'- इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता, दानादिका फल और संचित पापोंका भोग नहीं बनता, क्योंकि जिसने दान दिया या जिसने पाप किया वह तो नष्ट हो गया, तब दानका फल किसे मिलेगा और संचित पापोंके फलको कौन भोगेगा? इसी तरह जिसने कर्मका बन्ध किया वह तो क्षणिक होनेसे नह हो गया, तब मोक्ष किसे होगा किन्तु ये सब बातें होती है।जो दान देता है. उसे ही इस लोक या परलोकमें उसका फल मिलता है। जो पापकर्म करता है वही उसका फल भी भोगता है, जो कर्मबन्धनसे बँधता है वही उससे छूटकर मोक्ष भी प्राप्त करता है। हम प्रतिदिन यह अनुभव करते हैं जो हम कल थे, आज भी हैं। हमारे स्त्री,पुत्रादि सगे सम्बन्धी भी वे ही हैं जो पहले थे। जिसे हम कर्ज देते हैं कुछ दिनोंके बाद उससे ही वसूल करते हैं। यदि सब सर्वथा क्षणिक होते तो न देनेवाला लेनेवालेको पहचानता और न लेनेवाला देनेवालेको। ऐसी स्थितिमें सारा ही लोक-व्यवहार नष्ट हो जाता । अतः क्षणिकवादका सिद्धान्त ठीक नहीं है।
अव नित्यपक्षमें दूषण देते है-:
जो वस्तुको सर्वथा नित्य मानता है उसके मतमें सर्वथा नित्य वस्तु में अर्थक्रिया नहीं हो सकती। और जो अर्थक्रियासे रहित है वह वस्तु नहीं है ॥४५॥
विशेषार्थ-अर्थ माने कार्य और उसको क्रिया माने करना अर्थात कार्यको करनेका नाम अर्थक्रिया है। जिसमें अर्थक्रिया होती है वही परमार्थ सत् है, ऐसा सभी मानते हैं। किन्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक पक्षमें अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। अर्थक्रियाके दो ही प्रकार हैं-या तो वह क्रमसे होती है और या एक साथ होती है किन्तु नित्य वस्तुमें न क्रमसे अर्थक्रिया सम्भव है और न एक साथ । इसका खुलासा इस प्रकार हैपहले एक कार्यको करके पुनः दूसरा कार्य करने का नाम क्रम है । सर्वथा नित्य पदार्थ क्रमसे कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि नित्य पदार्थमें सब कार्योंको एक ही कार्य के उत्पादन कालमें उत्पन्न करने की सामर्थ्य है। यदि उस समय उसमें अन्य कार्योंको करनेकी सामर्थ्य नहीं है और बादको वह सामर्थ्य आती है, तो वह सर्वथा नित्य नहीं हो सकता; क्योंकि अपने असमर्थ स्वभावको छोड़कर समर्थ स्वभावको ग्रहण करने रूप परिणमनका नाम ही अनित्यता है । नित्य पदार्थ एक साथ भी सब कार्योको नहीं कर सकता; क्योंकि एक ही समयमें सव कार्योको कर देने पर दूसरे समयमें उसे कुछ करनेके लिए नहीं रहेगा और ऐसी स्थितिमें अर्थक्रियाका अभाव १. 'अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥८॥' -लघीयस्त्रय ।
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