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________________ २२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक सतो विनाशेऽसतोत्पत्तौ दूषणमाह संत इह जइ सइ किह तस्स पुणो वि सोयमिदि गाणं । अह व असंतं होदि हु दुमरहियं किं ण फलफुल्लं ॥४३॥ मनु वासनातः सोऽयमिति ज्ञानमिति चेदुत्तरं पठति अहवा वासणदो यं पडिअहिणाणे वियप्पविष्णाणं । *ता सा पंचह भिण्णा खंधाणं वासणा णिच्चं ॥ ४४ ॥ है कि द्रव्य न तो एकान्त रूपसे क्षणिक ही है और न नित्य ही है, न सर्वथा भेद रूप ही है और न सर्वथा अभेद रूप ही है । न सर्वथा सत् व्यापक और एक रूप ही है । आगे ग्रन्थकार स्वयं इन एकान्त पक्षोंमें दूषण दे रहे हैं, अतः यहाँ उनके सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरणको आवश्यकता नहीं है । [ गा० ४३ सबसे प्रथम सत्का विनाश और असत्की उत्पत्तिमें दूषण देते हैं- यदि संसार में सत्का विनाश होता तो पुनः उसीमें 'यह वही है' ऐसा ज्ञान कैसे होता ! तथा यदि असत् की भो उत्पत्ति होती तो बिना वृक्षके भी फल-फूल क्यों न होते !॥४३॥ विशेषार्थ - वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेपर सत् के विनाशका तथा असत् की उत्पत्तिका दूषण आता है | दर्शनशास्त्रका यह एक सर्वमान्य नियम है कि न तो सत्का विनाश होता है और न असत्की उत्पत्ति होती है | किन्तु वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेवर जो सत् है, उसका सर्वथा विनाश मानना होगा और जब उसका सर्वथा विनाश हो जायेगा, तो पुनः जो वस्तु उत्पन्न होगी, उसकी उत्पत्ति असत्से ही माननी पड़ेगी। जैसे मिट्टी के पिण्डका सर्वथा विनाश माननेपर उत्पन्न होनेवाला घट असत्से ही उत्पन्न हुआ कहलायेगा, क्योंकि मिट्टी तो सर्वथा विनष्ट हो गयी । सर्वथा विनाशसे मतलब यह है कि मिट्टीकी पिण्ड पर्यायके साथ मिट्टीका भी सर्वथा अभाव हो जाये और तब घट उत्पन्न हो तो असत्से ही घटकी उत्पत्ति कही जायेगी । पिण्ड पर्याय नष्ट होनेपर मिट्टी के घट पर्याय रूपमें परिणत हो जानेसे तो न सत्का विनाश होता है और न असत्की उत्पत्ति होती है । जैनदर्शन ऐसा ही मानता है । इसीसे वह प्रत्येक वस्तुको द्रव्यरूपसे नित्य और पर्याय रूपसे अनित्य मानता है । किन्तु बौद्धदर्शन 'सवं क्षणिकं' सिद्धान्तका अनुयायी है । उसका मत है कि संसारकी प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है। जैनदर्शन भी वस्तुको प्रतिक्षण परिवर्तनशील मानता है, किन्तु परिवर्तन के होते हुए भी द्रव्यका विनाश नहीं मानता, केवल उसकी पर्यायका विनाश मानता है । किन्तु चूँकि पर्याय द्रव्यसे अभिन्न होती है, अतः ऐसा कहा जाता है कि द्रव्यमें प्रतिक्षण उत्पाद व्यय होता है । किन्तु यथार्थ में द्रव्यका तो न विनाश होता है और न उत्पाद होता है । उसका द्रव्यत्वरूप तो धौव्य है । यह धौव्यरूप बौद्ध नहीं मानता। केवल उत्पाद और विनाश ही मानता है । और बिना धौव्यांशके उत्पादव्यय मानने से सत्का विनाश और असत्की उत्पत्तिका प्रसंग आता है। तथा यदि वस्तु सर्वथा क्षणिक है तो हमें उस वस्तुमें 'यह वही है जिसे हमने पहले देखा था' ऐसा प्रत्यभिज्ञान क्यों होता है ! वस्तु के नष्ट हो - जानेपर तो 'यह वही है' ऐसा बोध नहीं होना चाहिए। तथा यदि असत् की भी उत्पत्ति होती है तो वृक्षके बिना भी फल फूल पैदा हो जाने चाहिए । बिना मिट्टी के भी घड़ा बन जाना चाहिए । इसपर बौद्धका कहना है कि वस्तु के क्षणिक होते हुए भी जो उसमें 'यह वही है' ऐसी बुद्धि होती है, इसका कारण वासना है । वासनाके कारण ऐसा भ्रम होता है कि यह वही वस्तु है । किन्तु यथार्थ में वह वस्तु वही नहीं है | Jain Education International इसका उत्तर आगे ग्रन्थकार देते हैं यदि वासना से प्रत्यभिज्ञान रूप विकल्प ज्ञान होता है तो वह वासना पांचों स्कन्धों से भिन्न नित्य हुई || ४४ ॥ १. 'क्षणिकै कान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्य संभवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥ ४१ ॥ आ०मी० । २. सा भिण्णाभिण्णा वा आ० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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