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________________ -४८] नयचक्र अभेदपक्षे दूषणमाह जाणं दो वि य भिण्णं ताणं पि य जुत्तिवज्जियं सुत्तं । ण हु तं तच्चं परमं जुत्तीदो ज ण इह सिद्धं ॥४८॥ किन्तु गुण और गुणीके प्रदेश भिन्न नहीं होते। जैसे शुक्ल गुणके जो प्रदेश हैं वे हो प्रदेश गुणी वस्त्रके हैं, इसलिए उन दोनोंमें प्रदेश भेद नहीं है। इसी तरह एक परमाणु और उसमें रहनेवाले स्पर्श, रस, गन्ध,वर्ण आदि गुणोंके प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं है, इसलिए उनमें अभेद है। परन्तु जैसे अत्यन्त दूरवर्ती सह्य और विन्ध्यपर्वतमें प्रदेशभेद होनेसे भेद है तथा अत्यन्त निकटवर्ती मिले हुए दूध-पानीमें प्रदेशभेद होते हुए भी अभेद है, उस प्रकारका भेद और अभेद द्रव्य और गुणमें नहीं है क्योंकि उनमें प्रदेश भेद नहीं है । यहाँ वस्तुरूपसे भेद और वस्तुरूपसे अभेदके दो उदाहरण हैं-एक तो धनके योगसे धनी व्यवहार होता है यहाँ धनका अस्तित्व आदि, धनी पुरुषके अस्तित्व आदिसे भिन्न है। दूसरे, ज्ञानके योगसे ज्ञानी व्यवहार होता है। यहाँ ज्ञानका अस्तित्व और ज्ञानीका अस्तित्व आदि एक ही है; अलग नहीं है। यदि ज्ञानी ज्ञानसे सर्वथा भिन्न हो और ज्ञान ज्ञानीसे सर्वथा भिन्न हो तो दोनोंको ही अचेतनपना आता है। यदि ज्ञान और ज्ञानीको जुदा-जुदा मानकर उनका संयोग माना जायेगा तो बिना गुणोंके द्रव्यको शून्यताका प्रसंग आता है और बिना द्रव्यके निराधार होनेसे गुणोंकी शून्यताका प्रसंग आता है। यदि ज्ञान और ज्ञानीका समवाय सम्बन्ध माना जाता है। जैसा कि नैयायिक-वैशेषिक दर्शनवाले मानते हैं तो वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसी अवस्थामें प्रश्न उत्पन्न होता है कि ज्ञानके समवाय सम्बन्धसे पहले आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी था तो ज्ञानका समवाय मानना व्यर्थ है। यदि अज्ञानी है तो अज्ञानके समवायसे अज्ञानी है अथवा अज्ञान के साथ एकत्व होनेसे अज्ञानी है। अज्ञानके समवायसे तो अज्ञानी हो नहीं सकता, क्योंकि जो स्वयं अज्ञानी है उसमें अज्ञानका समवाय मानना निष्फल है। और ज्ञानका समवाय न होनेसे ज्ञानी तो वह है ही नहीं । अतः 'अज्ञानी' यह शब्द अज्ञानके साथ एकत्वको अवश्य ही सिद्ध करता है और इस प्रकार अज्ञानके साथ एकत्व सिद्ध होनेपर ज्ञानके साथ भी एकत्व अवश्य सिद्ध होता है। अतः द्रव्य और गुणका एक ही अस्तित्व होनेसे उन दोनोंमें जो अनादि अनन्त सहवृत्तिपना है वही जैनोंका समवाय सम्बन्ध है, उससे भिन्न समवाय नामका कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः जैनोंके मतानुसार द्रव्य और गुणोंमें संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि को अपेक्षा भेद होनेपर भी वस्तुरूपसे भेद नहीं है इसलिए वे दोनों अभिन्न हैं । जिनका अस्तित्व भिन्न होता है वे ही वास्तव में भिन्न होते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शनवाले युतसिद्धोंका संयोग सम्बन्ध और अयुतसिद्धोंका समवाय सम्बन्ध मानते हैं। जैसे दण्ड और पुरुष युतसिद्ध हैं, उनका अस्तित्व जुदा-जुदा है,अतः उन दोनोंका संयोग सम्बन्ध है। और ज्ञान तथा आत्माका अस्तित्व भी यद्यपि जुदा है ,तथापि वे दोनों अयुतसिद्ध हैं,अतः उनका समवाय सम्बन्ध है, ऐसा उनका मत है। किन्तु जैनोंका कहना है कि ज्ञान और आत्मा या गुण-गुणीका अस्तित्व जुदा है ही नहीं, जो गुणके प्रदेश हैं वे ही गुणीके प्रदेश हैं और जो गुणीके देश हैं वे ही गुणके प्रदेश है। इस प्रकार उनमें प्रदेश भेद न होने से भेद नहीं है। किन्तु फिर भी गुण और गुणी में नाम भेद पाया जाता है, लक्षणभेद पाया जाता है, संख्याभेद पाया जात दृष्टिसे वे भिन्न भी हैं, किन्तु वस्तुरूपसे भिन्न नहीं है। गाथा में ग्रन्थकारने समवाय सम्बन्धमें अनवस्था दोष दिया है वह इस प्रकार है-यदि गुण द्रव्यमें समवाय सम्बन्धसे रहता है तो समवाय सम्बन्ध भी गुण और गुणीमें किस सम्बन्धसे रहेगा! यदि अन्य समवाय सम्बन्धसे रहता है तो पुनः प्रश्न होता है कि वह समवाय सम्बन्ध किस सम्बन्धसे उनमें रहेगा। इस तरह अनवस्था दोष आता है। और यदि कहोगे कि समवाय सम्बन्ध बिना किसी अन्य सम्बन्धके गुण और गुणीमें रहता है, तो जैसे समवाय सम्बन्ध बिना अन्य सम्बन्धके गुण गुणी में रहता है उस तरह गुण स्वयं ही बिना किसी अन्य सम्बन्धके द्रव्यमें क्यों नहीं रहेगा अतः गुण द्रव्यसे भिन्न न होकर उसीके परिणाम विशेष कर उसीके परिणाम विशेष हैं.ऐसा मानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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