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________________ द्रव्यस्वनावप्रकाशक [गा० ३९निरपेक्ष कान्तलक्षणं निराकृत्य तस्यैवं दोषं दर्शयति जत्थ ण अविणाभावो तिण्हं दोसाण संभवो तत्थ । अह उवयारा तं इह कह उवयारा हवे णियमो॥३९॥ होनेसे मिट्टीके पिण्डका व्यय ( विनाश ) ही नहीं होगा या फिर सत्का ही मूलोच्छेद हो जायेगा। क्योंकि मिट्टीके स्थिर रहते हुए उसकी पिण्ड पर्यायका ध्यय होनेपर घटको उत्पत्ति होती है सो न तो मिट्टीकी स्थिरता को माना जाता है और न घटकी उत्पत्ति मानी जाती है तो पिण्ड पर्यायका नाश होगा कैसे ? फिर भी यदि पिण्ड पर्यायका विनाश माना जाता है तो मिट्टीका सर्वथा लोप हो जायेगा, कुछ भी शेष नहीं बचेगा। इसी तरह केवल विनाशको माननेपर या तो किसी भी पदार्थका विनाश ही नहीं होगा या फिर सबका उच्छेद ही हो जायेगा, कुछ भी शेष नहीं रहेगा। तथा उत्पाद, व्ययके बिना केवल मिट्टीको ध्रौव्य माननेपर भी नहीं बनता:क्योंकि ध्रौव्य उत्पाद-व्यय-सहित ही होता है, उत्पाद व्ययके बिना नहीं। अतः पूर्वपूर्व पर्यायके विनाशके साथ, उत्तर-उत्तर पर्यायका उत्पाद और दोनों में अनुस्यूत, अन्वयका ध्रौव्य इस प्रकार अविनाभावको लिये हए त्रिलक्षणात्मक द्रव्यको मानना चाहिए। ये उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य वास्तवमें पर्यायमें होते हैं और पर्याय द्रव्यमें होती है, इसलिए ये तीनों एक ही द्रव्य हैं; द्रव्यान्तर नहीं हैं। जैसे स्कन्ध, मूल, शाखा ये सब वृक्षके आश्रित हैं; वृक्षसे भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं, उसी प्रकार पर्यायें भी द्रव्याश्रित ही हैं; द्रव्यसे भिन्न पदार्थ रूप नहीं हैं। किन्तु जैसे वृक्षमें फल-फूल और पत्ते पृथक्-पृथक् होते हैं, वैसे ही द्रव्य का किसी एक अंशके द्वारा उत्पाद, किसी एक अंशके द्वारा व्यय और किसी एक अंशके द्वारा ध्रौव्य हो, ऐसी बात नहीं है। किन्तु द्रव्य ही उत्पादरूप है, द्रव्य ही व्ययरूप है और द्रव्य ही ध्रौव्यरूप है। न तो केवल अंशोंका ही उत्पाद व्यय और ध्रौव्य होता है, न केवल अंशीका ही उत्पाद व्यय ध्रौव्य होता है, किन्तु अंशीका अंशरूप से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता है। जैसे तरंगोंसे व्याप्त समुद्र एक ही है। क्योंकि समुद्र स्वयं ही तरंगरूपसे परिणमन करता है। इसी तरह द्रव्य स्वयं ही उत्पाद है, स्वयं ही व्यय है और स्वयं ही धौव्य है। द्रव्यसे भिन्न न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है। किन्तु द्रव्याथिक नयसे न उत्पाद है, न व्यय है, न ध्रौव्य है, न गण है, न पर्याय है किन्तु केवल एक द्रव्य है। पर्यायाधिक नयसे उत्पाद भी है व्यय भी है और ध्रौव्य भी है। सारांश यह है कि जब भेददृष्टि होती है, तब तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनों प्रतीत होते हैं और जब अभेददृष्टि होती है तो ये तीनों ही प्रतीत नहीं होते। आगे निरपेक्ष एकान्त लक्षणका निराकरण करके उसके दोष बतलाते हैं "जहाँ इन तीनोंमें अविनाभाव नहीं है वहाँ अनेक दोष आते हैं। यदि कहोगे कि उपचारसे ऐसा है तो उपचारसे नियम कैसे हो सकता ॥३९॥" -यदि उत्पाद व्यय और ध्रौव्यमें अविनाभाव नहीं माना जायेगा तो अनेक दोष आयेंगे। यह पहले स्पष्ट कर आये हैं कि केवल उत्पाद, केवल व्यय या केवल ध्रौव्यको माननेसे या तीनमें दो को माननेसे क्या-क्या दोष आते हैं ! इन तीनोंका परस्परमें अविनाभाव है, एकके बिना बाकीके दो नहीं हो सकते। इसी तरह इन तीनोंमें-से किन्हीं दोके बिना एक भी नहीं हो सकता । इसका स्पष्ट इस प्रकार हैउत्पाद व्ययके बिना नहीं हो सकता,क्योंकि जो नवीन पदार्थ उत्पन्न होता है, वह किसीका विनाश हुए बिना नहीं होता। इसी प्रकार व्यय भी उत्पादके बिना नहीं होता,क्योंकि अभाव नियमसे भावपूर्वक ही होता है। उत्पाद और व्यय भी ध्रौव्यके बिना नहीं होते क्योंकि सत्स्वरूप वस्तुके होनेपर ही उसके आश्रयसे उत्पाद और व्यय होते हैं। मिट्टी यदि न हो तो पिण्डपर्यायका विनाश और घटपर्यायकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी तरह उत्पाद और व्ययके बिना ध्रौव्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि विशेषके अभावमें सामान्य नहीं १. निरपेक्षव व्यवहारनिश्चयकान्त--आ०। २. 'ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा ध्रौव्वेण अत्येण ।। उप्पाददिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दब्वं हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥'-प्रवचन० 110०-१०१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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