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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०३६ 'तिक्काले जं सत्तं वट्टदि उप्पादवयधुवतहि । गुणपज्जायसहावं अणाइसिद्धं खु तं हवे दव्वं ॥३६॥ लक्षणानां परस्परमविनाभावित्वं भेदाभेदं चाहुः जम्हा ऍक्कसहावं तम्हा तत्तिदयदोसहावं खु। जम्हा तिदयसहावं तम्हा दोऍक्कसम्भावं ॥३७॥ दोसब्भाव जम्हा तम्हा तिण्णक होइ सम्भावं। दव्वत्थिएण ऍक्कं भिण्णं ववहारदो तिदयं ॥३८॥ विशेषार्थ-द्रव्य शब्द 'द्रु' धातुसे बना है। उसका अर्थ जाना या प्राप्त करना है। जो गुणपर्याय को प्राप्त करता है या गुणपर्यायोंके द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य है। यह द्रव्य शब्दकी व्युत्पत्तिको लेकर उसका लक्षण किया गया है । चूँकि द्रव्य तो अनादि अनन्त है, न उसका आदि है और न अन्त है, सदासे है और सदा रहेगा, इसलिए उसकी व्युत्पत्ति भी तीनों कालोंकी अपेक्षा की गयी है। जो गुणपर्यायोंको प्राप्त करता है वह द्रव्य है,यह वर्तमानको अपेक्षाको लेकर है। जो गुणपर्यायोंको प्राप्त करेगा,यह भविष्य की अपेक्षासे व्युत्पत्ति है। और जो गुणपर्यायोंको प्राप्त कर चुका है, यह भूतकालकी अपेक्षासे है । इस तरह द्रव्य त्रिकालवर्ती है। उसका प्रवाह सदा चलता है,एक पर्याय जाती है तो दूसरी पर्याय आती है । इस तरह पर्याय उत्पन्न होती और नष्ट होती रहती हैं। किन्तु द्रव्य न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है । यही बात आगे कहेंगे। द्रव्यके शेष दो लक्षणोंको कहते हैं 'तीनों कालोंमें जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूपसे सत् रहता है अथवा जो गुणपर्यायस्वभाववाला है वह द्रव्य है,वह द्रव्य अनादिसिद्ध है ॥३६॥' विशेषार्थ-ऊपरका लक्षण द्रव्य शब्दकी व्युत्पत्तिको लेकर किया गया है । ये दोनों लक्षण द्रव्यके स्वरूपको बतलाते हैं। जो सदा उत्पाद,व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होता है वह द्रव्य है। चेतन या अचेतन द्रव्यमें अपनी जाति को न छोड़ते हुए जो पर्यायान्तरकी उत्पत्ति होती है वह उत्पाद है ; जैसे मिट्टी के पिण्डमें घटपर्याय । इसी तरह पूर्वपर्यायके विनाशको व्यय कहते हैं ; जैसे घड़ेकी उत्पत्ति होनेपर मिट्टीके पिण्डाकारका नाश हो जाता है। अनादि पारिणामिक स्वभावसे न उत्पाद होता है और न व्यय होता है, द्रव्य ध्रुव रहता है जैसे पिण्ड और घट दोनों अवस्थाओंमें मिट्टीपना ध्रुव है । अथवा जैसे मलिन हुए वस्त्रको धोनेपर निर्मल अवस्था रूपसे उसकी उत्पत्ति होती है, मलिन अवस्थारूपसे व्यय होता है और उसका वस्त्रत्व कायम रहता है। इसी तरह प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता है, पूर्व अवस्थासे व्यय होता है और द्रव्यत्व अवस्थासे ध्रुव रहता है। इस तरह जिसमें प्रतिसमय उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य वर्तमान हैं वह द्रव्य है । तथा जो गुण और पर्यायवाला है वह द्रव्य है । गुण और पर्यायोंका कथन कर आये हैं। अब लक्षणोंका परस्परमें अविनाभाव और भेदाभेद बतलाते हैं चूँकि द्रव्य एक स्वभाववाला है, इसलिए तीसरे और दूसरे स्वभाववाला है, यतः तीसरे स्वभाववाला है इसलिए दो और एक स्वभाववाला है। यतः दो स्वभाववाला है इसलिए तीन और एक स्वभाववाला है। द्रव्यार्थिक नयसे द्रव्य एक रूप है, व्यवहारनयसे भिन्न तीन रूप है ।।३७-३८॥ विशेषार्थ-ऊपर तीन प्रकारसे द्रव्यका लक्षण कहा है । सत्तासे अभिन्न होनेके कारण द्रव्यका लक्षण केवल 'सत्' ही है । किन्तु द्रव्य तो अनेकान्तात्मक है । अतः अनेकान्तात्मक द्रव्यका स्वरूप केवल सन्मात्र ही १. 'दव्वं सल्लक्षणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥१०॥-पञ्चास्ति। 'अपरिच्चत्त सहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वंति वुच्चंति ॥९५।।'-प्रवचनः । 'सद्रव्यलक्षणं ॥२९।। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।।३०॥ गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ।।३८॥"-तत्त्वार्थसूत्र अ० ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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