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________________ -३५ ] नयचक्र जे संखाई खंधा परिणमिया दुअणुआ दिखंधेह | ते चि दव्वबिहावा जाण तुमं पोंग्गलाणं च ॥३२॥ पुद्गलगुणविभाव पर्यायान्दर्शयति वाइया य उत्ता जे दिट्ठा दुअणुआइखंधम्मि । पुग्गलाण भणिया बिहाव गुणवज्जया सव्वे ॥ ३३ ॥ धर्माधर्माकाशकानां स्वभावद्रव्यगुणपर्ययानाह - गदिठिदिग्राहणवट्टण धम्माधम्मेसु गमणकालेसु । गुणसन्भावोपज्जय दवियसहावो दु पुव्वुत्तो ॥३४॥ अथ व्युत्पत्तिपूर्वकत्वेन लक्षणन्त्रयं द्रव्यस्याह देवदि विस्सदि दविदं जं सबभावेहि विविहपज्जाए । ह 'जीवो पोंगल घम्साधम्मं च कालं च ॥३५॥ तं जो संख्यात प्रदेशी आदि स्कन्ध द्वयणुक आदि स्कन्ध रूपसे परिणमित होते हैं उन्हें भी तुम पुद्गल द्रव्योंकी विभाव पर्याय जानो ॥३२॥ | १७ पुद्गल द्रव्योंके गुणोंकी विभावपर्यायों को कहते हैं द्वणुक आदि स्कन्धों में जो रूपादि गुण देखे जाते हैं वे सब पुद्गलों को विभावगुणपर्याय जानना चाहिए ॥ ३३ ॥ विशेषार्थ - जैसे परमाणु पुद्गलद्रव्यकी शुद्ध पर्याय है और परमाणुमें पाये जानेवाले गुण उसकी स्वभाव गुणपर्याय है; वैसे ही दो आदि परमाणुओं के मेलसे जो स्कन्ध बनते हैं वे पुद्गलोंकी विभाव द्रव्यपर्याय हैं और उनमें पाये जानेवाले गुण विभावगुणपर्याय हैं । जब द्रव्यका वैभाविक परिणमन होगा तो उस द्रव्य गुणों में भी वैभाविक परिणमन होगा ही । द्रव्यका तो विभावरूप परिणमन हो और गुणोंका न हो यह तो सम्भव नहीं है, क्योंकि गुणोंके समुदायको ही तो द्रव्य कहते हैं । आगे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य के स्वभावद्रव्य - पर्याय और स्वभावगुणपर्यायोंको कहते हैं धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यमें क्रमसे गतिरूप, स्थितिरूप, अवगाहनरूप और वर्तनारूप जो गुण पाये जाते हैं वह उनकी स्वभावगुणपर्याय है । और इन द्रव्योंका स्वभाव तो पूर्वोक्त है ||३४|| विशेषार्थ-ये चारों द्रव्य किसी अन्य द्रव्यके साथ मिलकर विभावरूप परिणमन नहीं करते । सर्वदा अपनी स्वाभाविक दशा में ही रहते हैं । अतः इनमें स्वभावद्रव्यपर्याय ही होती है । इनका स्वभाव पहले कह आये हैं कि धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों की गतिमें निमित्त होता है, अधमंद्रव्य उनकी स्थिति में निमित्त होता है । आकाशद्रव्य सब द्रव्योंके अवगाहन में निमित्त होता है और कालद्रव्य वर्तनामें निमित्त है । इन द्रव्योंमें पाये जानेवाले इन गुणोंकी जो अवस्था है वही उनकी स्वभाव गुणपर्याय है । इस प्रकार पर्यायाधिकार समाप्त हुआ । आगे व्युत्पत्तिपूर्वक द्रव्यके तीन लक्षण कहते हैं- जो गुणों और पर्यायों द्वारा प्राप्त किया जाता है, प्राप्त किया जायेगा और प्राप्त किया गया है वह द्रव्य है । अथवा जो अपने गुणों और पर्यायोंको प्राप्त करता है, प्राप्त करेगा और प्राप्त कर चुका है वह द्रव्य है । वह द्रव्य छह प्रकारका है- आकाश, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ||३५|| १. 'दवियदि गच्छदि ताइ ताइ सब्भावपज्जयाई जं । दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो ||९|| - पञ्चास्ति० । 'यथास्य पर्यायैद्रयन्ते द्रवन्ति वा तानि द्रव्याणि । सर्वार्थ० ५।२ । ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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