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________________ -२९] नयचक्र तथा सति 'संखा संखाणंता बादरसुहमा य हुति ते खंधा। परिणविदा बहभेया पुढवीआदीहि णायव्वा ॥२८॥ पुद्गलद्रव्यस्वभावपर्यायान् प्ररूपयति जो खलु अणाइणिहणो कारणरूवो ह कज्जरूवो वा। परमाणुपोग्गलाणं सो दव्वसहावपज्जाओ ॥२९॥ विशेषार्थ-यदि जघन्यगुण एक माना जाये तो कहना होगा कि एक गुणवाले परमाणुका किसी अन्य परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता। दो गुणवालेका बन्ध होता है, किन्तु एकसे दूसरे में दो गुण अधिक होना चाहिए। जैसे दो गुणवाले परमाणुका चार गुणवाले परमाणुके साथ ही बन्ध होता है, तीन-पाँच, सात आदि गुणवालेके साथ नहीं। इसी तरह तीन गुणवाले परमाणुका पाँच गुणवाले परमाणुके साथ ही बन्ध होता है, पाँचसे कम या अधिक गुणवालेके साथ बन्ध नहीं होता । यह बन्ध स्निग्धका स्निग्धके साथ, स्निग्धका रूक्षके साथ, रूक्षका रूक्षके साथ और रूक्षका स्निग्धके साथ होता है। यहाँ समसे मतलब दोचार, चार-छह आदि समसंख्यावालेसे है और विषमसे मतलब तीन-पांच, पाँच-सात आदि विषम संख्यावाले से है अर्थात् दोको आदि लेकर या तीनको आदि लेकर दो अधिक गुण होनेसे बन्ध होता है। इस तरह दो गुणवालेका चार गुणवालेके साथ, चार गुणवालेका छह गुणवालेके साथ, तीन गुणवालेका पाँच गुणवालेके साथ, पाँच गुणवालेका सात गुणवालेके साथ बन्ध जानना चाहिए । ऐसा होने पर संख्यात प्रदेशी,असंख्यात प्रदेशी और अनन्तप्रदेशी बादर और सूक्ष्म स्कन्ध बनते हैं। वे पृथिवी आदि रूपसे परिणत स्कन्ध अनेक प्रकारके जानने चाहिए ॥२८॥ विशेषार्थ-स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे संख्यात-असंख्यात और अनन्त परमाणुओंका बन्ध होनेपर संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध बनते हैं। उनमेंसे बादर-स्थूल भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं । पृथिवी, जल, आग और वायु उन्हीं पुद्गल स्कन्धोंके भेद हैं। कुछ दार्शनिक इन चारोंको जुदे-जुदे द्रव्य मानकर उनके परमाणुओंको भी भिन्न-भिन्न जातिके मानते हैं। उनके भतसे पृथिवी जातिके परमाणु जुदे हैं; उनमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श चारों गुण होते हैं । जलके परमाणुओंमें गन्धको छोड़कर तीन ही गुण होते हैं । आगके परमाणुओंमें रूप और स्पर्श गुण ही होता है तथा वायुके परमाणुओंमें केवल स्पर्श गुण ही होता है, किन्तु जैन सिद्धान्त ऐसा नहीं मानता। उसके मतानुसार सभी परमाणुओंमें चारों गुण होते हैं, किन्तु परिणमनवश किसीमें कोई गुण व्यक्त होता है और किसी में कोई गुण अव्यक्त होता है। इन चारों गुणोंमें परस्पर सहभाव है । जहाँ एक होगा वहाँ शेष भी अवश्य रहेंगे। तथा एक जातिके परमाणुओंसे दूसरी जातिकी वस्तु उत्पन्न होती हुई देखी जाती है। जल की बूंद सीप में पड़कर मोती बन जाती है। मोतीको पार्थिव माना जाता है। लकड़ी पार्थिव है,वह आगरूप परिणत होती है । अतः पृथिवी आदि पौद्गलिक परमाणुओंके बन्धसे बनते हैं। ये सब पुद्गल स्कन्धोंके ही भेद हैं। आगे पुद्गल द्रव्यकी स्वभाव पर्यायोंको कहते हैं जो अनादि निधन कारणरूप अथवा कार्यरूप परमाणु है, वह पुद्गलोंकी स्वभावपर्याय है ॥२९॥ विशेषार्थ-पुद्गलका एक शुद्ध परमाणु उसकी स्वभाव पर्याय है। क्योंकि परमाणु रूप अवस्था पर निरपेक्ष है। परमाणु तो अनादिनिधन है । वह कारणरूप भी है और कार्यरूप भी है। परमाणुओंके १. 'बादरसुहुमगदाणं खंधाणं पुग्गलो त्ति ववहारो। ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं ॥७६।। पञ्चास्ति। २. 'धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं ति तं णेओ। खंधाणं अवसाणो णादब्बो कज्जपरमाण ॥२५॥-नियमसा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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