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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
संप्रति स्वभावविभावपर्यायप्रकरणे किंचित्पौद्गलिकपरिणामं स्निग्धरूक्षत्वादिबन्धमाह'मुत्ते परिणामादो परिणामो णिद्धरुक्खगुणरूवो । उत्तरमेगादी वड्ढदि अवरादु उक्कस्सं ॥२६॥
पुद्गलानां परस्परं बन्धकस्वरूपमाह
णिद्वादो णिद्वेण तहेव रुक्खेण सरिस विसमे वा । झदि दोगुणअहिओ परमाणु जहण्णगुणरहिओ ॥२७॥
विशेषार्थ - गुणोंकी शुद्ध अवस्था को स्वभाव गुणपर्याय कहते हैं, क्योंकि वह परनिमित्तके बिना स्वतः होती | जैसे मुक्त जीवके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यगुण उसकी स्वभाव गुणपर्याय हैं । नियमसार ( गा० १५ ) की टीकामें पद्मप्रभमलधारिदेवने स्वभाव पर्यायके दो भेद किये हैं- कारण शुद्धपर्याय और कार्य शुद्धपर्याय । सहज शुद्ध नियमसे अनादि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान, सहज दर्शन, सहजचारित्र, सहज परम वीतराग सुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व स्वरूप जो स्वभाव अनन्त चतुष्टय स्वरूप है, उसके साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली जो पंचम पारिणामिक भावरूप परिणति है वह कारण शुद्ध पर्याय । और सादि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले, शुद्ध सद्भूत व्यवहारनयसे केवलज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख, केवल शक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टयके साथ जो परमोत्कृष्ट क्षायिकभावकी शुद्धपरिणति है वही कार्यशुद्ध पर्याय है । अर्थात् सहज ज्ञानादि स्वभाव अनन्त चतुष्टय युक्त कारणशुद्ध पर्याय से केवल• ज्ञानादि अनन्तचतुष्टययुक्त कार्यशुद्धपर्याय प्रकट होती है, इसलिए परम पारिणामिकभाव परिणति कारणशुद्ध पर्याय है और शुद्ध क्षायिक भाव परिणति कार्य शुद्ध पर्याय है ।
आगे स्वभाव, विभाव पर्यायके इस प्रकरणमें पुद्गल में स्निग्धता रूक्षता आदिके द्वारा होनेवाले बन्धरूप परिणामका कथन करते हैं-
[ गा० २६
पुद्गलद्रव्य में परिणमनके कारण एकसे लेकर एक-एक बढ़ते हुए जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त स्निग्ध और रूक्ष गुण रूप परिणाम होता है ॥ २६ ॥
विशेषार्थ - विभाव पर्यायका कथन करते हुए ग्रन्थकार पुद्गलद्रव्यमें विभाव रूप परिणमन किस प्रकार होता है, यह बतलाते हुए कहते हैं कि परिणमन तो वस्तुका स्वरूप है, अतः पुद्गलद्रव्यमें भी परिणमन होता है । उस परिणमन के कारण पुद्गल परमाणुमें पाये जानेवाले स्निग्ध और रूक्षगुणके अविभागी प्रतिच्छेदों में एकसे लेकर एक-एक बढ़ते-बढ़ते अनन्त अविभागी प्रतिच्छेद तक वृद्धि होती है । परमाणु में जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त स्निग्धरूक्ष गुणके अविभागी प्रतिच्छेद सदा घटते-बढ़ते रहते हैं । यद्यपि परमाणु अनेक गुण रहते हैं, किन्तु बन्ध में कारण स्निग्ध और रूक्षगुण ही हैं । इन्हीं दो गुणोंके कारण एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ बन्ध होता है। यदि दोनों परमाणुओंके गुणोंका अनुपात वन्धयोग्य होता है तो बन्ध होता है, अन्यथा नहीं होता । जिस परमाणुमें स्निग्ध या रूक्षगुणका भाग जघन्य होता है उसका बन्ध नहीं होता । किन्तु जघन्यसे उत्कृष्टकी ओर वृद्धि हो जानेपर वह परमाणु बन्ध योग्य हो जाता है । पुद्गलों के परस्पर में बन्धका स्वरूप कहते हैं
स्निग्धका स्निग्धके साथ तथा रूक्षके साथ बन्ध
होता है
एक से दूसरे में दो गुण अधिक होनेपर ही बन्ध नहीं होता ॥२७॥
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होता है, किन्तु सम हो या विषम हो और जघन्य गुणवाले परमाणुका बन्ध
।
१. मुत्तो अ० क० । २. वड्ढिप्रवरा - ज०-दि जहण्णादु अ० क० ख० । 'एगुत्तरमेगादी अणुस्स विद्धत्तणं च लुक्खत्तं । परिणामादो भणिदं जाव अनंतत्तमणुभवदि । प्रवचन० गा० १६४ । ३. 'णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि आदिपरिहीणा ॥'
-प्रवचन० गा० १६५ ।
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