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________________ प्रस्तावना ४१ अन्त में ग्रन्थ के सम्पादन में प्रयुक्त प्रतियों का परिचय देकर इस प्रकरण को समाप्त करेंगे। सम्पादन में प्रयुक्त प्रतियों का परिचय प्रकृत 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' की हस्तलिखित कुछ प्रतियाँ हमें सम्पादनार्थ जयपुर, कारंजा तथा ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, व्यावर से प्राप्त हुई थीं। उन्हीं के आधार पर प्रकृत ग्रन्थ का सम्पादन तथा संशोधन किया गया है। इसी तरह ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्टि रूप में दी गयी आलापपद्धति का भी सम्पादन जयपुर से प्राप्त प्रतियों के आधार पर किया गया है। नीचे उन सबका परिचय दिया जाता है १ अ. प्रति। आमेर शास्त्रभण्डार जयपुर (राजस्थान) नं. ५५६, पत्र संख्या ३४, लिपि सुन्दर और शुद्ध। प्रत्येक पत्र में ६ पंक्ति और प्रत्येक पंक्ति में ३४ अक्षर। संवत् १७६४ आसौज मास कृष्णपक्ष दशमी तिथि गुरुवार को लिखकर पूर्ण हुई। लिपिकर्ता हैं जिनदास विलाला वासी लवायण का। २ आ. प्रति। आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर (राजस्थान) नं. ५५४ । पत्र संख्या ५३। प्रत्येक पत्र में ६ पंक्ति और प्रत्येक पंक्ति में ३३ या ३४ अक्षर। यत्र तत्र संस्कृत में टिप्पण भी हैं। अक्षर सुन्दर हैं किन्तु प्राचीन होने से सुमैल हो गये हैं। कुछ जीर्ण भी हो चले हैं। अन्त में प्रदाता की प्रशस्ति है। सं. १५०२ वर्षे वसाख वदी २ श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे नन्दिसंघे बलात्कारगणे श्री पद्मनन्दिदेवाः तत्पट्टे श्री शुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रदेवाः पद्मनंदिशिष्य श्रीमदनकीर्तिदेवाः तस्य शिष्या ब्रह्म नरसिंघ बघेरवालान्वय जडिया गोत्रे सं. सीहभार्या नयलु तयो पुत्र ष्येघरष्या सीटात्मा काल्हा वाल्हां....वाल्हापुत्री....सम्यक्त्व शीलाभरण...। इदं नयचक्र ब्रह्म नरसिंह लिष्यापितं कर्मक्षयनिमित्तं। ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः। अन्नदानात् सुखी नित्यं निर्व्याधी भेषजं भवेत्॥ क. प्रति। ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, व्यावर। पत्र संख्या २३। प्रत्येक पत्र में ६ पंक्ति, प्रत्येक पंक्ति में ४५-४६ अक्षर। गाथाओं की उत्थानिकाएँ ऊपर-नीचे हासियों में लिखी हैं। प्रायः शुद्ध है। अन्त में लेखक प्रशस्ति है इति नयचक्र समाप्त। संवत् १८८६ कार्तिकमासे कृष्णपक्षे दुतियायां मंगलवासरे लिषतं महात्मा राधाकृष्ण सवाई जयनगरमध्ये वासी कृष्णगढ का। श्रीकल्याणरस्तु। ख. प्रति-ऐ.प.स. व्यावर। पत्र सं. ४६, प्रत्येक पत्र में पंक्ति ६, प्रत्येक पंक्ति में अक्षर अधिक ४३, कम ३८। इति नयचक्र समाप्तं लिखापितं ब्रह्मदेवपठनार्थ । ज. प्रति। कारंजा अ. नं. ३५६ । पत्र सं. २५ ।। प्रत्येक पत्र में पंक्ति १२ या १३। प्रत्येक पंक्ति में ३५ से ४० तक अक्षर। प्रति प्रायः शुद्ध है। यत्र-तत्र टिप्पण और पाठभेद भी अंकित हैं। ग्रन्थ समाप्त होने के बाद दो पत्र और हैं जिनमें 'नयचक्र' की कुछ गाथाएँ लिखकर उनका भाषा अर्थ दिया है। 'नयचक्र' के अन्त में परिशिष्टरूप से आलापपद्धति भी दी गयी है। उसके सम्पादन के लिए हमें एक प्रति कारंजा से, एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन आरा से और ४ प्रतियाँ दि. जैन अति. श्री महावीरजी जयपुर से प्राप्त हुई थीं, उनका भी परिचय नीचे दिया जाता है। क. प्रति। श्री आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर। नं. १०७ । पत्र ८, प्रत्येक में पंक्ति १२। प्रत्येक पंक्ति में ४० अक्षर। लिपि स्पष्ट और प्रायः शुद्ध है। संवत् १७७२ मार्गशीर्ष वदी पड़वा को पाटिलपुर में दयाराम ने लिखी है। ख. प्रति। आमेर शास्त्रभण्डार जयपुर। पत्र २०, प्रत्येक में ५ पंक्ति, प्रत्येक पंक्ति में ३४ अक्षर । क प्रति से इसका पत्र लम्बा और चौड़ा भी है किन्तु एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के मध्य में अन्तराल विशेष दिया है। अक्षर बड़े और सुन्दर हैं। प्रायः क प्रति के अनुकूल ही है। सं. १७७५ में लिखी गयी है। आ. प्रति। आमेर शा. जयपुर। नं. १०५। पत्र १४, प्रत्येक पत्र में ७ पंक्ति और प्रत्येक पंक्ति में ३३ से ३७ तक अक्षर। प्रारम्भ के तीन पत्रों के हाशिये पर टिप्पण भरे हुए हैं। शेष में भी कहीं-कहीं हीनाधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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