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________________ ३८. नयचक्र अधिक हानि होती है। साथ ही आगम में ऐसे दस स्थान बतलाये हैं जिनमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उनमें सबसे प्रथम स्थान सम्यग्दृष्टि का है। उसके प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा बराबर होती है। इसीलिए 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' में कहा है तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयलेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च ॥२१॥ उस रत्नत्रय में से सर्वप्रथम सब प्रकार के प्रयत्नों के द्वारा सम्यदर्शन की सम्यक् उपासना करना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है । चारित्र अब हम चारित्र की ओर आते हैं। जैसे सम्यग्दर्शन के दो प्रकार हैं, वैसे ही चारित्र के भी दो प्रकार हैं । ग्रन्थकार ने दोनों का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है असुहेण रायरहिओ वयाइरागेण जो हु संजुत्तो । सो इह भणिय सराओ मुक्को दोन्हं पि खलु इयरो ॥३३१॥ - जो अशुभ के राग से रहित है और व्रत आदि के राग से संयुक्त है, उसे यहाँ सराग कहा है और जो शुभ तथा अशुभ दोनों ही रागों से मुक्त है वह वीतराग है । वीतरागचारित्र ही उपादेय है और सरागचारित्र हेय है, क्योंकि शुद्धोपयोगरूप वीतरागचारित्र से मोक्षसुख प्राप्त होता है और शुभोपयोगरूप सरागचारित्र से स्वर्गसुख प्राप्त होता है। फिर भी शुभोपयोगरूप सरागचारित्र को अपनाये बिना वीतरागचारित्र की प्राप्ति सम्भव नहीं है । इसलिए अशुभोपयोग बचने के लिए शुभोपयोग को अपनाने का विधान जिनागम में है । इसी से शुभोपयोग रूप सरागचारित्र को परम्परा से मोक्ष का भी कारण कहा है । किन्तु वह सरागचारित्र निश्चयमोक्षमार्ग से निरपेक्ष नहीं होना चाहिए । विशुद्धज्ञानदर्शन स्वभाव शुद्ध आत्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्ग है। जो इस निश्चयमोक्षमार्ग को भूलकर केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारमोक्षमार्ग को ही अपनाते हैं, वे भले ही स्वर्ग में चले जाएँ, किन्तु उनका संसार- परिभ्रमण नहीं छूटता । हाँ, जो शुद्धानुभूतिरूप निश्चयमोक्षमार्ग को मानते हैं, किन्तु निश्चयमोक्षमार्ग के अनुष्ठान की शक्ति न होने से निश्चय के साधक शुभानुष्ठान को करते हैं, वे सरासम्यग्दृष्टि परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं । और जो केवल निश्चयनय का अवलम्बन लेकर भी रागादि विकल्प से रहित परमसमाधि रूप शुद्ध आत्मा को प्राप्त करने में असमर्थ होते हुए भी मुनियों के षडावश्यक आदि रूप आचरण की और श्रावकों के दानपूजा आदि रूप आचरण की निन्दा करते हैं, वे दोनों प्रकार के चारित्रों से भ्रष्ट होकर पाप का ही बन्ध करते हैं । शुभपयोग में भी धर्म का अंश रहता है। आचार्य 'कुन्दकुन्द ने 'प्रवचनसार' में कहा है Jain Education International धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥११॥ धर्म से परिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त होता है, तो मोक्षसुख को पाता है, और यदि शुभोपयोग से युक्त होता है तो स्वर्गसुख को पाता है । इस गाथा में जहाँ शुद्धोपयोगी को धर्मपरिणत आत्मा कहा है, वहाँ शुभोपयोगी को भी धर्मपरिणत आत्मा कहा है। इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने भी दोनों को ही धर्मपरिणत स्वभाव कहा है। किन्तु शुद्धोपयोगी के चारित्र को अपना कार्य करने में समर्थ कहा है और शुभोपयोगी के चारित्र को अपना कार्य करने में असमर्थ तथा कथंचित् विरुद्ध कार्यकारी कहा है। अतः जैसे अशुभोपयोग सर्वथा हेय है; वैसे शुभोपयोग सर्वथा हेय नहीं है, किन्तु सर्वथा उपादेय भी नहीं है। यदि शुभोपयोग सर्वथा हेय होता, तो आचार्य अमृतचन्द्र श्रावकाचार की रचना न करते और न उसे 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' नाम देते। श्रावक का आचार भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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