________________
प्रस्तावना
३७
इसमें कहा है कि चतुर्गतिरूप संसार के दुःखों में पड़े हुए जीव को जो मोक्षपद में धारण करता है, वह धर्म है। वह है- आत्मा का विशुद्ध परिणाम । विशुद्ध का मतलब है- मिथ्यात्व रागादि से रहित । टीकाकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि इस धर्म नय विभाग से सभी धर्म के लक्षणों का अन्तर्भाव हो जाता है । जैसे अहिंसा को धर्म कहा है, वह भी जीव के शुद्ध भावों के बिना सम्भव नहीं है । सागार - अनगार रूप धर्म या उत्तमक्षमादि रूप दस धर्म भी जीव के शुद्ध भाव की ही अपेक्षा करते हैं। स्वामी समन्तभद्र ने जो 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है, वह शुद्ध भाव को लेकर ही है। कुन्दकुन्द स्वामी ने ‘प्रवचनसार' में जो राग-द्वेष- मोह रहित परिणाम को धर्म कहा है, वह भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही है। ‘स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' में जो वस्तुस्वभाव को धर्म कहा है, वह भी वही है । अतः शुद्ध परिणाम ही कर्तव्य है, ऐसी जिसकी अन्तरंग श्रद्धा है, वही वास्तव में जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धानी है और वही सम्यग्दृष्टि है ।
मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायजन्य राग के हटे विना आत्मा के परिणामों में विशुद्धता का सूत्रपात नहीं होता । और उसके बिना व्रत, तप, संयम व्यर्थ होता है। ऐसा सभी शास्त्रों में कहा है। किन्तु आज के समय में लोक में बढ़ते हुए असंयम को देखकर संयम के प्रेमी संयम पर जोर देते हैं जो उचित है, किन्तु उसके साथ में जैनधर्म का मूल जो सम्यक्त्व है उसे भुलाना नहीं चाहिए और न उसका महत्त्व कम करना चाहिए । सम्यक्त्व के माहात्म्य से जैन - साहित्य भरा हुआ है। उत्तरकाल के विद्वान् भी उसे मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते थे। पं. जयचन्दजी ने 'समयसार' टीका के भावार्थ में लिखा है
'सिद्धान्त में मिथ्यात्व को ही पाप कहा है। जहाँ तक मिथ्यात्व रहता है, वहाँ तक शुभ-अशुभ सभी क्रियाओं को अध्यात्म में परमार्थ से पाप ही कहा है और व्यवहारनय की प्रधानता में व्यवहारी जीवों को अशुभ छुड़ाकर शुभ में लगाने को किसी तरह पुण्य भी कहा है । स्याद्वाद मत में कोई विरोध नहीं है ।
शंका- परद्रव्य से जब तक राग रहे, तब तक मिथ्यादृष्टि कहा है। इसको हम नहीं समझे, क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के चारित्रमोह के उदय से रागादिभाव होते हैं। उसके सम्यक्त्व कैसे कहा है?
समाधान - यहाँ मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धी का राग प्रधान करके कहा है, क्योंकि अपने और पर के ज्ञान- श्रद्धान के विना परद्रव्य में तथा उसके निमित्त से हुए भावों में आत्मबुद्धि हो तथा प्रीति- अप्रीति हो तो समझना कि इसके भेद - ज्ञान नहीं हुआ । मुनिपद लेकर व्रत, समिति भी पालता है, वहाँ जीवों की रक्षा तथा शरीर सम्बन्धी यत्न से प्रवर्तना, अपने शुभभाव होना, इत्यादि परद्रव्य सम्बन्धी भावों से अपना मोक्ष होना माने और पर- जीवों का घात होना, अयत्नाचार रूप प्रवर्तना, अपना अशुभ भाव होना आदि परद्रव्यों की क्रिया से ही अपने में बन्ध माने, तो जानना कि इसके अपना और पर का ज्ञान नहीं हुआ; क्योंकि बन्ध - मोक्ष तो अपने भावों से था । परद्रव्य तो निमित्तमात्र था, उसमें विपरीत माना, इस तरह जब तक पर द्रव्य से ही भला-बुरा मान रागद्वेष करता है, तब तक सम्यग्दृष्टि नहीं है।' आगे गा. २०१-२०२ के भावार्थ में लिखा है
'यहाँ अज्ञानमय कहने से मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी से हुए रागादि समझना । मिथ्यात्व के बिना चारित्रमोह के उदय का राग नहीं लेना, क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के चारित्रमोह सम्बन्धी राग है; किन्तु वह ज्ञान सहित है । उसको रोग के समान जानता है । उस राग के साथ राग नहीं है, कर्मोदय से जो राग है उसे मेटना चाहता है । शुभराग होता है, परन्तु उस शुभराग को अच्छा समझ लेशमात्र भी उस राग से राग करे तो सर्वशास्त्र भी पढ़ लिये हों, मुनि भी हो, व्यवहारचारित्र भी पाले तो भी ऐसा समझना कि उसने अपनी आत्मा का परमार्थस्वरूप नहीं जाना, कर्मोदयजनित भाव को ही अच्छा समझा है। उसी से अपना मोक्ष मानता है। ऐसा मानने से अज्ञानी है। अपने और पर के परमार्थरूप को नहीं जाना, तो जीव अजीव पदार्थ का भी परमार्थरूप नहीं जाना। और जब जीव- अजीव को ही नहीं जाना, तब सम्यग्दृष्टि कैसे हुआ ?
जिनोक्त तत्त्व के श्रद्धान से यही अभिप्राय है । अतः यह सब सरागसम्यग्दृष्टि की बात है । उसको भी अबन्धक कहा है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा उसके ४३ कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । शेष ७७ कर्मप्रकृतियों का भी स्थिति - अनुभागबन्ध अल्प होता है, फिर भी वह संसार की स्थिति का छेदक है, इसलिए उसे अबन्धक कहा है। जब वह आगे पंचमगुणस्थान और षष्ठगुणस्थानवर्ती होता है तब तो बन्ध में और भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org