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________________ ३६ नयचक्र है । अतः सरागसम्यग्दृष्टि या व्यवहार सम्यग्दृष्टि का परिणाम शुद्धात्माभिमुख होता है, तभी तो वह निश्चय सम्यक्त्व के रूप में परिणत होता है और इसी से कहीं-कहीं सरागसम्यक्त्व को भी निश्चय सम्यक्त्व कहा है। 'परमात्मप्रकाश' (२।१७ ) की टीका में टीकाकार ब्रह्मदेव ने जिस प्रश्न का समाधान किया है, उसका हिन्दी अनुवाद किया जाता है। प्रभाकर भट्ट प्रश्न करता है प्रश्न- निज शुद्धात्मा ही उपादेय है; इस प्रकार का रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व होता है - ऐसा आपने पहले अनेक बार व्याख्यान किया है। यहाँ निश्चय सम्यक्त्व को वीतरागचारित्र का अविनाभावी कहा तो यह पूर्वापर विरोध क्यों ? उत्तर- निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार का रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व गृहस्थ अवस्था में तीर्थंकरदेव, भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि के वर्तमान था, किन्तु उनके वीतरागचारित्र नहीं था; यह परस्पर विरोध है । यदि उनके वीतरागचारित्र होता तो वे असंयमी क्यों होते ? यह पूर्वपक्ष है। इसका परिहार इस प्रकार है - उनके शुद्धात्मा उपादेय है; इस प्रकार भावनारूप निश्चय सम्यक्त्व तो है, किन्तु चारित्रमोह के उदय से स्थिरता नहीं थी । व्रतादि नहीं होने से वे असंयत कहे जाते हैं। शुद्ध आत्मभावना से डिगकर भरत आदि निर्दोष परमात्मा अर्हन्त - सिद्धों का गुणस्तवरूप या वस्तुस्तवरूप स्तवनादि करते हैं, उनके चरित, पुराण आदि सुनते हैं। उनके आराधक आचार्य, उपाध्याय, साधुओं का विषयकषायरूप खोटे ध्यान से बचने के लिए और संसार की स्थिति के छेद के लिए पूजा-दान आदि करते हैं, इसलिए शुभराग के योग से वे सरागसम्यग्दृष्टि होते हैं। उनके सम्यक्त्व को जो निश्चय सम्यक्त्व कहा गया है, वह वीतरागचारित्र के अविनाभावी निश्चय सम्यक्त्व का परम्परा से साधक होने से कहा है। वास्वत में तो वह सम्यक्त्व सरागसम्यक्त्व नामक व्यवहार सम्यक्त्व ही है । इस तरह दृष्टि-भेद से व्यवहार सम्यक्त्व को भी निश्चय सम्यक्त्व कहा गया है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सराग सम्यक्त्व में शुद्धात्म भावना होती है, तभी तो वह निश्चय सम्यक्त्व के रूप में प्रकट होती है। उसके बिना तो सम्यक्त्व होता ही नहीं है । 'बृहद्रव्यसंग्रह' गाथा ४५ की टीका में ब्रह्मदेव ने लिखा है 'मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षये सति, अध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामे सति शुद्धात्मभावनोत्पन्ननिर्विकारवास्तवसुखमुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धिः सम्यग्दर्शनशुद्धः स चतुर्थगुणस्थानवर्ती व्रतरहितो दार्शनिको भण्यते ।' - मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर अथवा अध्यात्म भाषा के अनुसार निज शुद्ध आत्मा के अभिमुख परिणाम होने पर, शुद्ध आत्मभावना से उत्पन्न निर्विकार, यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय मानकर संसार शरीर भोगों में जो हेयबुद्धि है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध व्रतरहित चतुर्थ गुणस्थानवर्ती दार्शनिक है। 'समयसार' गा. १३० - १३१ की टीका में जयसेनाचार्य ने भी ऐसा ही कहा है ‘चतुर्थगुणस्थानयोग्यां शुद्धात्मभावनामपरित्यजन्निरत्नरं धर्मध्यानेन देवलोके कालं गमयित्वा...' चतुर्थ गुणस्थान के योग्य शुद्धात्मभावना को न त्यागते हुए निरन्तर धर्मध्यानपूर्वक देवलोक में काल बिताकर ...आदि । 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में असंयत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि जो न तो इन्द्रियों से विरत है और न त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, केवल जिनेन्द्र के द्वारा कहे हुए तत्त्वों का श्रद्धान करता है, वह असंयत सम्यग्दृष्टि है । इसको कुछ विद्वान् भी बहुत हलके रूप में लेते हैं । किन्तु जिनोक्त तत्त्वों के श्रद्धान में ही सम्यक्त्व का सार समाया हुआ है; जैसा कि ऊपर चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है। 'परमात्मप्रकाश' में धर्म की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है Jain Education International भाउ विसुद्ध अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु । चउगइ दुक्खहं जो धरइ जीव पडंतहु एहु ॥२, ६८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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