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परिशिष्ट
तथा कालादिनानात्वकल्पनं निःप्रयोजनम् । सिद्धं कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वतः ॥ ८७॥ कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैविधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थैकत्वनिश्चयः ||८८|| शब्दः कालादिभिभिन्नो' भिन्नार्थप्रतिपादकः । कालादिभिन्नशब्दत्वात्तादृक् सिद्धान्यशब्दवत् ||८९ ॥ पर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् । नयः समभिरूढः स्यात् पूर्ववच्चास्य निश्चयः ॥ ९० ॥
होनेपर भी दोनोंका अर्थ जल किया जाता है। किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि वचनभेद होनेपर अर्थभेद नहीं माना जायेगा तो 'घट:' और 'तन्तवः' ( धागे) का अर्थ भी एक हो जायेगा, क्योंकि इन दोनों में वचनभेद है ।
संस्कृत भाषा में परिहास में उत्तम पुरुषके स्थान में मध्यमपुरुषका और मध्यमपुरुष के स्थान में उत्तमपुरुषका प्रयोग ठीक माना जाता है । किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह साधन भेद होनेपर भी अर्थ में भेद न माननेपर 'मैं पकाता हूँ' 'तू पकाता है' यहाँ भी दोनोंका एक अर्थ मानना होगा । तथा संस्कृतमें स्था धातु से पूर्व 'सम्' उपसर्ग लगानेपर संतिउते रूप बनता है, और 'अव' उपसर्ग लगानेपर 'अवलिष्ठते' रूप बनता है, इस तरह उपसर्ग भेद होनेपर भी दोनोंका अर्थ एक माना जाता है, किन्तु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि उपसर्गभेद होने पर भी अर्थभेद न माननेपर 'तिष्ठति' और 'प्रतिष्ठति' इन दोनों शब्दों के अर्थ ठहरने और चलने में भी अभेदका प्रसंग आता है । अतः शब्दनयका कथन है कि कालादिके भेदसे शब्दका भिन्न ही अर्थ होता है ।
कालादिका भेद होनेपर भी अर्थका अभेद माननेपर अन्य दोष देते हैं
काल आदि के भेद अर्थका भेद माननेपर ही काल, कारक आदिकी भेदकल्पना उचित है, अन्यथा तो काल आदिका भेद मानना ही निष्प्रयोजन है; क्योंकि काल आदिमें से किसी एकके माननेसे ही इष्टकी सिद्धि हो जाती है ।
आशय यह है कि काल, कारक, लिंग, संख्या साधन आदिको मान्यता तभी उचित है, जब इनके भेद से अर्थ में भी भेद माना जाये । यदि ऐसा नहीं माना जाता तो इनमें से किसी एकसे ही काम चल सकता है, सबके मानने की आवश्यकता हो क्या है ?
यही बात आगे कहते हैं -
जो वैयाकरण काल आदिका भेद होनेपर भी पदार्थके एकत्वका ही निश्चय मानते हैं अर्थात् अर्थभेद नहीं मानते, उन्हें कालादिमें से किसी एकको ही मानना चाहिए - सबके मानने की आवश्यकता ही क्या है ?
काल आदि के भेदसे अर्थभेद में युक्ति देते हैं
काल कारक आदिके द्वारा भिन्न शब्द भिन्न अर्थका प्रतिपादक होता है, काल आदिके निशब्द
होनेसे । जैसे काल आदिके भेदसे सिद्ध हुए, अन्य शब्द भिन्न-भिन्न अर्थके प्रतिपादक होते हैं ।
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अब समभिरूढ़नयको कहते हैं-
पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे भिन्न अर्थका अधिरोहण करनेसे समभिरूढ़ नय होता है । पूर्वके समान इसका निश्चय कर लेना चाहिए ।
१. भिन्नाभिन्नार्थ - मु० १, २ ।
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